Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा उसके कारणों से दूर रहे। वीतरागता के पथिक द्रव्य और भाव से एकाकी साधक में रागभाव आ जाता है या अन्य पदार्थों में आसक्ति होती है, तव साधु जीवन की विडम्बना होती है, विशेषतः स्त्री सम्बन्धी राग, आसक्ति या मोह का बन्धन तो अत्यधिक विडम्बनाकारक है। इसीलिए शास्त्रकार सूत्रगाथा 278 में निर्देश करते हैं-"ओए सदा ण रज्जेज्जा / " ___ इस चेतावनी के बावजूद साधु के चित्त में पूर्व संस्कारवश या मोहकर्म के उदयवश काम-भोग पासमा प्रादुर्भूत हो जाए, तो ज्ञान रूपी अंकुश से मारकर तुरन्त उन काम-भोगों से विरक्त-विरत हो आना चाहिए / जैसे मुनि रथनेमि को महासती राजीमती को देखकर कामवासना प्रादुभूत हो गई थी, लेकिन ज्यों ही महासती राजीमती का ज्ञान-परिपूर्ण वचन रूप अंकुश लगा कि वे यथापूर्व स्थिति में आगए थे, एकदम कामराग से विरत होगए थे। वैसे ही साधु का मन कदाचित् स्त्री सम्बन्धी भोगवांसना से ग्रस्त हो जाए तो फौरन वह ज्ञान बल द्वारा बलपूर्वक उसे रोके, उसमें बिल्कुल दिलचस्पी न लै, यथापूर्व स्थिति में आ जाए तो वह शील भ्रष्टता एवं उसके कारण होने वाली विडम्बनाओं से बर्च सकती है। स्त्रो सम्बन्धी भोगवासना चित्त में आते ही श्रमण इस प्रकार से चिन्तन करे कि "वह स्त्री मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ। फिर मेरा उसके प्रति रागभाव क्यों ? यह तो मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव तो वीतरागभाव है। इसप्रकार वह आत्मत्राता श्रमण रागभाव को अपने हृदय से खदेड़ दे।" और फिर काम-भोग तो किम्पाकफल के समान भयंकर हानिकारक है। किम्पाकफल तो एक ही बार, और वह भी शरीर को ही नष्ट करता है, लेकिन स्त्रीजन्य कामभोग बार-बार जन्म-जन्मान्तर मैं शरीर और आत्मा दोनों को नष्ट करते हैं। इसीलिए शास्त्राकार कहते हैं-'भोमकामी पुणो निरज्जेज्जा। शास्त्रकार की इतनी चेतावनी के बावजूद जो साधु काम-भोगों को कामना को न रोककर उल्टे ऑसक्ति पूर्वक काम-भोगों के प्रवाह में बह जाता है, लोग उसकी हंसी उड़ाते हैं, कहते हैं-'वाह रे साधु ! कल तो हमें काम-भोगों को छोड़ने के लिए कह रहा था, आज स्वयं ही काम-भोंगों में बुरी तरह लिपट गया ! यह कैसा साधु है ! इस प्रकार वह साधु जनता के लिए अविश्वसनीय, अश्रद्धेय, अनादरणीय और निन्दनीय बन जाता है। उसके साथ-साथ उससे सम्बन्धित गुरु, आचार्य तथा अन्य सम्बन्धित श्रमण भी लोक विडम्बना, लोकनिन्दा एवं घोर आशातना के पात्र बन जाते हैं। इसी आशय को व्यक्त करने के लिए शास्त्रकार एकवचन युक्त श्रमण शब्द का प्रयोग न करके बहुवचनयुक्त 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 के अनुसार 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 के अनुसार (ख) "तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं / अंकुसेण बहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ // " -दशबै० अ०२ गा० 10, तथा उत्तरा अ० 62 गा० 46 (ग) "न सा महं, नो वि अहंपि तीसे इच्चेव ताओ विणएज्ज राग।" -दशव० अ०२ गा०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org