Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन- स्त्रीपरिज्ञा देखकर उस स्त्री के ज्ञाति (पारिवारिक) जनों और सुहृदजनों (हितषियों) के हृदय में दुःख उत्पन्न होता है। उन्हें उस अकेली स्त्री का साधु के पास बैठे रहना बहुत बुरा लगता है / वे इसे अपनी जाति या कुल की बदनामी या कलंक समझते हैं / वे साध के इस रवैये को देखकर उसके सम्बन्ध में अनेक प्रकार की शंका-कुशंका एवं निन्दा करते हैं। उस स्त्री के स्वजनों द्वारा बार-बार रोक-टोक करने और समझाने पर भी जब वह अपनी इस बुरी आदत को नहीं छोड़ता तो वे कु द्ध होकर उससे कहते हैं-अब तो आप ही इसका भरण-पोषण करिये, क्योंकि यह आपके पास ही अधिकतर बैठी रहती है, अतः अब तो आप ही इसके स्वामी हैं। अथवा उस स्त्री के जातिजन उस साधु पर ताना कसते हुए कहते हैं-'हम लोग तो इसके भरण-पोषण करने वाले हैं, इसके पति तो तुम हो, क्योंकि यह अपने सब कामकाज छोड़कर सदा तुम्हारे पास ही बैठी रहती है। कितनी निन्दा, भर्त्सना बदनामी, अपमान और अवदशा है, स्त्री संसर्ग के कारण ! यही अवदशा शास्त्रकार ने २६०वीं सूत्रगाथा में अभिव्यक्त की है। छठी अवदशा-तपस्वी साधु को भी किसी स्त्री के साथ एकान्त में बैठे या वार्तालाप करते देखकर कई लोग सहन नहीं करते, वे क्रोधित हो जाते हैं / अथवा 'समणं दठ्ठदासोणं' का यह अर्थ भी हो सकता है-तपस्वी साधु को अपनी स्वाध्याय, ध्यान एवं संयमक्रियाओं के प्रति उदासीन (लापरवाह) होकर जब देखो, तब किसी स्त्री के साथ एकान्त में बैठकर बातचीत करते देखकर कई लोगों में रोष पैदा हो जाता है। इसी अवदशा को शास्त्रकार सवगाथा 261 के पूर्वाद्ध में अभिव्यक्त करते हैं-'समणं वठ्ठदासी णं....."एगे कुप्पंति।' सातवीं अबदशा-वे साधु के लिए भाँति-भांति के पकवान बनाते और देते देखकर कई लोग उस स्त्री के प्रति चरित्रहीन या बदचलन होने की शंका करते हैं / इसी बात को शास्त्रकार २६१वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में व्यक्त करते हैं-'अदुवा भोयणेहि णत्यहि इत्यीदोससंकिणो होति / ' अथवा इस पंक्ति का यह अर्थ भी सम्भव है-'अब यह स्त्री उस साधु के आने पर चंचलचित्त होकर श्वसुर आदि को आधा आहार या एक के बदले दूसरा भोज्य पदार्थ परोस देती है, इसलिए वे उस स्त्री के प्रति एकदम शंकाशील हो जाते हैं कि यह स्त्री अवश्य ही उस साधु का संग करती होगी, क्योंकि यह उस साधु के लिए विशिष्ट आहार बना कर रखती है या देती है। वृत्तिकार ने इस अर्थ का समर्थक एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया है कि एक स्त्री भोजन की थाली पर बैठे अपने पति व श्वसुर को भोजन परोस रही थी, किन्तु उसका चित्त उस समय गाँव में होने वाले नट के नृत्य को देखने में था। अतः अन्यमनस्क होने से उसने चावल के बदले रायता परोस दिया ! उसके श्वसुर और पति इस बात को ताड़ गए। उसके पति ने क्र द्ध होकर उसे बहुत पीटा और परपुरुषासक्त जानकर उसे घर से निकाल दिया। निष्कर्ष यह है कि स्त्रीसंसर्ग या स्त्री के प्रति लगाव के कारण साधु के चरित्र पर लांछन आता है, लोग उसके प्रति दोष की आशंका से शंकित रहते हैं। आठवीं अवदशा-बहुत-से साधु घरवार आदि छोड़कर साधु ओर गृहस्थ के मिलेजुले आचार का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org