Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 242 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा 242. ये (अनुकल-प्रतिकूल-उपसर्ग-विजेता पूर्वोक्त साधक) (दुस्तर) संसार को भी पार लेंगे, जैसे समुद्र के आश्रय से व्यापार करने वाले (वणिक् ) समुद्र को पार कर लेते हैं, जिस संसार (समुद्र) में पड़े हुए प्राणी अपने-अपने कर्मों से पीड़ित किये जाते हैं / 243. भिक्षु उस (पूर्वोक्त अनुकूल-प्रतिकूल-उपसर्ग-समूह को जानकर (ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से उससे मुक्त रह कर) उत्तम ब्रतों से युक्त तथा पंच समितियों से सहित रह कर विचरण करे, मृषावाद (असत्य) को छोड़ दे, और अदत्तादान का व्युत्सर्ग (मन-वचन-काया से त्याग) कर दे। 244. ऊपर, नीचे और तिरछे (लोक) में जो कोई बस-स्थावर प्राणी हैं, उनके नाश (वध) से विरति (निवृत्ति) कर लें। (ऐसा करने से) शान्तिरूप निर्वाणपद की प्राप्ति कही गई है। 245. काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस धर्म को स्वीकार करके समाधियुक्त भिक्षु अग्लान भाव से ग्लान साधु की वैयावृत्त्य (सेवा) करे। 246. सम्यम्-दृष्टि सम्पन्न एवं परिनिर्वृत (प्रशान्त) साधक (मुक्ति प्रदान करने में) कुशल इस धर्म को सम्यक प्रकार से जानकर उपसर्गों पर नियन्त्रण (विजय प्राप्त करता हआ मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम में पराक्रम (पुरुषार्थ) करे। - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- उपसर्गविजेता साधु : कौन और कैसे ?-प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं में उपसर्ग विजेता साधक की योग्यता, प्रतिफल और कर्तव्य का निर्देश किया गया हैं / उपसर्गविजेता के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से यहाँ अध्ययन का उपसंहार करते हुए विचार किया गया है- (1) उपसर्गबिजेता साधक स्वकर्म पीड़ित संसार-सागर को सामुद्रिक व्यवसायी की तरह पार कर लेते हैं, (2) पूर्वगाथाओं में उक्त उपसर्गों को जानकर उनसे बचे, (3) उत्तमव्रत धारक हो, (4) पंच समितियों से युक्त हो, 5) मृषावाद का परित्याग करे, (6) अदत्तादान का त्याग करे, (7) समस्त प्राणियों की हिंसा से विरत हो, (8) शान्ति ही निर्वाण प्राप्ति का कारण है, (9) भगवान् महावीर द्वारा प्रज्ञप्त धर्म का स्वीकार करे, (10) ग्लान साधु की अग्लान भाव से सेवा करे, (11) मुक्ति प्रदान-कुशल धर्म को पहचाने-परखे, (12) सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न हो, (13) राग-द्वेष, कषाय आदि से परिशान्त हो, (14) उपसर्गों के आने पर शीघ्र नियन्त्रण में करे, और (15) मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम में निष्ठापूर्वक पराक्रम करे। उपसर्गविजेता बनने के लिए पहला कदम-संसार-सागर को पार करना बड़ा कठिन है, संसार तभी पार किया जा सकता है, जबकि कर्मों का सर्वथा क्षय हो। कर्मों का क्षय करने के लिए पूर्वगाथाओं में उक्त अनुकूल और प्रतिकूल समस्त उपसर्गों पर विजय पाना आवश्यक है। जो मोक्षयात्री साधक इन समस्त उपसर्गों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे बहुत आसानी से उसी तरह संसार-समुद्र को धर्मरूपी या संयमरूपी जहाज से पार कर लेते हैं, जिस तरह सामुद्रिक व्यापारी समुद्र की छाती पर माल से लदी अपनी जहाजे चला कर लवण समुद्र को पार कर लेते हैं / इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- एते 30 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित, भा॰ 2, पृ० 14 से 66 तक का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org