Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 242 से 246 ओघ तरिस्संति "सयकम्मुणा / ' परन्तु जो दुस्तर नारी-संगरूपी उपसर्ग पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, वे स्त्रकृत असाता वेदनीय रूप पापकर्म के उदय से संसार-सागर को पार नहीं कर सकते, वे संसार में रहते हुए दुःख भोगते हैं। संसार उन्हीं के लिए दुस्तर है, जिनके लिए नारीसंग दुस्तर है। एक कवि ने कहा है "संसार ! तव दुस्तारपदवी न दवीयसी। अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदिरे ! मदिरेक्षणा // "31 "अरे संसार ! यदि बीच में ये दुस्तर नारियां न होती तो तेरी यह जो दुस्तार पदवी है, उसका कोई महत्त्व न होता !" यह उपसर्ग-विजयी साधक बनने के लिए पहला कदम है। दूसरा कदम --अनुकूल और प्रतिकूल जितने भी उपसर्गों का निरूपण पिछली सूत्रगाथाओं में किया गया है, उन्हें भली-भांति जाने / कौन-कौन-से उपसर्ग, कैसे-कैसे किस-किस रूप में आते हैं ? उन सबको ज्ञपरिज्ञा से अच्छी तरह समझ ले, तत्पश्चात् प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनसे सावधान होकर बचे, उन उपसर्गों के आते ही दृढ़तापूर्वक उन पर विजय पाए, उन्हें अपने पर हावी न होने दे। यह उपसर्ग विजेता के लिए द्वितीय कदम है, जिसके लिए शास्त्रकार ने कहा है-'तं व भिक्खू परिणाय / ' तीसरा कदम-उपसर्गविजयी बनने के लिए साधक को सुन्दर व्रतों (यम-नियमों) से युक्त होना आवश्यक है। शास्त्रकार ने भी कहा है-"सुव्वते "चरे।" 'चरे' क्रिया लगाने के पीछे आशय यह है कि साधक केवल महाव्रत या यम-नियम ग्रहण करके ही न रह जाए, उनका आचरण भी दृढ़तापूर्वक करे, तभी वह उपसर्गों पर सफलता से विजय पा सकेगा। चोया कदम-साधक को उपसर्गविजयी बनने के लिए पांच समितियों और उपलक्षण से तीन गुप्तियों का पालन करना आवश्यक है। अगर इनका अभ्यास जीवन में नहीं होगा तो साधु उपसर्गों के समक्ष टिक न सकेगा। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-'समिते चरे'। इस वाक्य से शास्त्रकार का आशय उत्तरगुणों के दृढ़तापूर्वक आचरण से है जबकि 'सुन्वते' शब्द से मूलगुणों का आचरण द्योतित किया गया है। पाँचवाँ, छठा और सातवां कदम-पूर्वोक्त कदम में महाव्रतों का विधेयात्मक रूप से आचरण करने का निर्देश था, किन्तु कई साधक वैसा करते हुए भी फिसल जाते हैं, इसलिए निषेधात्मक रूप से भी व्रताचरण करने हेतु यहाँ तीन निर्देशसूत्र है-(१) मुलावायं च वजिलज्जा, (2) अदिन्नादाणं च वोसिरे, और (3) सम्वत्थ विरति कुज्जा / अर्थात् ---उपसर्गों पर विजय पाने के लिए यह आवश्यक है कि साधक मृषावाद (असत्य) का मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से सर्वथा त्याग करे; इसी तरह अदत्तादान (चौर्यकर्म) का भी व्युत्सर्ग करे, साथ हो 'च' शब्द से मैयुनवृत्ति (अब्रह्मचर्य) और परिग्रहवृत्ति को भी सर्वथा छोड़े, और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु है-जीव हिंसा से सर्वथा विरत होने की। अर्थात्- समस्त लोक और सर्वकाल में जो भी बस-स्थावर आदि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के 31 सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी टीका, भा॰ 2, पृ० 185 में उद्धृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org