Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 254 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा 260. किसी समय (एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठे हुए साधु को) देखकर (उस स्त्री के) ज्ञाति (स्व) जनों अथवा सुहृदों-हितैषियों को अप्रिय लगता है। (वे कहते हैं-) जैसे दूसरे प्राणी काम-भोगों में गद्ध-आसक्त हैं (वैसे ही यह साधु भी है।) (वे साधु से कहते हैं-)'तुम इस (स्त्री) का रक्षण-पोषण करो, (क्योंकि) तुम इसके पुरुष हो।' 261. (रागद्वेषवजित) उदासीन तपस्वी (श्रमण) साधु को भी स्त्री के साथ एकान्त में बातचीत करते या बैठे देखकर कोई-कोई व्यक्ति ऋद्ध हो उठते हैं / अथवा नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन साधु के लिए बनाकर रखते या देते देखकर वे उस स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लगते हैं (कि यह उस साधु से अनुचित संबंध रखती है)। 262. समाधियोगों (धर्मध्यान) से भ्रष्ट पुरुष ही उन स्त्रियों के साथ संसर्ग करते हैं। इसलिए श्रमण आत्महित के लिए स्त्रियों के निवास स्थान (निषद्या) पर नहीं जाते। 263. बहुत-से लोग घर से निकल कर प्रवजित होकर भी मिश्रभाव-अर्थात्-कुछ गृहस्थ का और कुछ साधु का, यों मिला-जुला आचार अपना लेते हैं। इसे वे मोक्ष का मार्ग ही कहते हैं / (सच है) कुशीलों के वचन में ही शक्ति (वीर्य) होती है, (कार्य में नहीं)। 264. वह (कुशील पुरुष-साधक) सभा में (स्वयं को) शुद्ध कहता है, परन्तु एकान्त में दुष्कृत (पापकर्म) करता है। तथाविद् (उसकी अंगचेष्टाओं-आचार-विचारों एवं व्यवहारों को जानने वाले व्यक्ति) उसे जान लेते हैं कि यह मायावी और महाधूर्त है। 265. बाल (अज्ञ) साधक स्वयं अपने दुष्कृत-पाप को नहीं कहता, तथा गुरु आदि द्वारा उसे अपने पाप को प्रकट करने का आदेश दिये जाने पर भी वह अपनी बड़ाई करने लगता है। "तुम मैथुन की अभिलाषा (पुरुषवेदोदय के अनुकूल कामभोग की इच्छा) मत करो, “इस प्रकार (आचार्य आदि के द्वारा) बार-बार प्रेरित किये जाने पर वह कुशील ग्लानि को प्राप्त हो (मुस) जाता है (झेंप जाता है या नाराज हो जाता है)। 266. जो पुरुष स्त्रियों की पोषक प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रह चुके हैं, अतएव स्त्रियों के कारण होने वाले खेदों के ज्ञाता (अनुभवी) हैं एवं प्रज्ञा (औत्यात्तिकी आदि बुद्धियों) से सम्पन्न (युक्त) हैं, ऐसे भी कई लोग स्त्रियों के वश में हो जाते हैं / / 267. (इस लोक में परस्त्री-सेवन के दण्ड के रूप में) उसके हाथ-पैर भी छेदे (काटे) जा सकते हैं, अथवा उसकी चमड़ी और मांस भी उखेड़ा (काटा) जा सकता है, अथवा उसे आग में डालकर जलाया जाना भी सम्भव है, और उसका अंग छीलकर उस पर क्षार (नमक आदि) का पानी भी छिड़का जा सकता है। 268. पाप-सन्तप्त (पाप की आग में जलते हुए) पुरुष इस लोक में (इस प्रकार से) कान और नाक का छेदन एवं कण्ठ का छेदन (गला काटा जाना) तो सहन कर लेते हैं, परन्तु यह नहीं कहते कि हम अब फिर ऐसे पाप नहीं करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org