Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 156 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा 266. सुतमेतमेवमेसि, इत्थीवेदे वि हु सुअक्खायं / एवं पिता वदित्ताणं, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति // 23 // 270. अन्न मणेण चितेंति, अन्न वायाइ कम्मुणा अन्नं / तम्हा ण सद्दहे भिक्खू, बहुमायाओ इथिओ णच्चा / / 24 // 271. जुवती समणं बूया उ, चित्तलंकारवत्थगाणि परिहेता। विरता चरिस्स हं लूहं, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो॥ 25 // 272. अदु साविया पवादेण, अहगं साधम्मिणी य समणाणं / जतुकुम्भे जहा उवज्जोती, संवासे विदू वि सीएज्जा // 26 // 273. जतुकुम्भे जोतिमुवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुपयाति / एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति // 27 // 274. कुवंति पावगं कम्म, पुट्ठा वेगे एवमाहंसु / नाहं करेमि पावं ति, अंकेसाइणो ममेस त्ति // 28 // 275. बालस्स मंदयं बितियं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो। दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामए विसण्णेसी / / 26 / / 276. संलोकणिज्जमणगारं, आयगतं णिमंतणेणाऽऽहंसु।। वत्थं व ताति ! पातं वा, अन्न पाणगं पडिग्गाहे // 30 // 277. णीवारमेय बुज्झज्जा, णो इच्छे अगारमागंतु। बद्ध य विसयपासेहि, मोहमागच्छतो पुणो मंदे // 31 // त्ति बेमि / / 247. जो पुरुष (इस भावना से दीक्षा ग्रहण करता है कि मैं) “माता-पिता तथा समस्त पूर्व संयोग (पूर्व सम्बन्ध) का त्याग करके, मैथुन (सेवन) से विरत होकर तथा अकेला ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त (सहित) रहता हुआ विविक्त (स्त्री, पशु एवं नपुंसक रहित) स्थानों में विचरण करूंगा।" 248. उस साधु के निकट आकर हिताहितविवेकरहित स्त्रियाँ छल से, अथवा गूढार्थ वाले पदों (छन्न शब्दों, पहेली व काव्य) से उसे (शील भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती हैं / ) वे स्त्रियाँ वह उपाय भी जानती हैं, जिससे कई साधु उनका संग कर लेते हैं। 246. वे साधु के पास बहुत अधिक बैठती हैं, बार-बार कामवासना-पोषक सुन्दर वस्त्र पहनती हैं, शरीर के अधोभाग (जांघ आदि) को भो (साधु को कामोत्तेजित करने हेतु) दिखाती हैं, तथा बाहें ऊंचो करके कांख (दिखाती हुई साधु के) सामने से जातो हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org