Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 157 तृतीय उद्देशक : गाथा 144 से 150 मान, माया और लोभ रूप चार कषायों का त्याग करना, (15-17) मन-वचन-काया की अशुभ-प्रवत्ति रूप तीन दण्डों से विरति / कामासक्ति-त्याग का उपदेश 144 जे विण्णवणाहिझोसिया, संतिण्णेहि समं वियाहिया। ___ तम्हा उड्ढं ति पासहा, अद्दक्खू कामाइं रोगवं // 2 // 145 अग्गं वणिएहिं आहियं, धारेती राईणिया इहं। एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा // 3 // 146 जे इह सायाणुगा णरा, अच्छोववन्ना कामेसु मुच्छिया। किवणेण समं पगभिया, न वि जाणंति समाहिमाहियं // 4 // 147 वाहेण जहा व विच्छते, अबले होइ गवं पचोइए। से अंतसो अप्पथामए, नातिवहति अबले विसीयति // 5 / / 148 एवं कामेसणं विदू, अज्ज सुए पयहेज्ज संथवं / कामी कामे ण कामए, लद्ध वा वि अलद्ध कन्हुई // 6 // 146 मा पच्छ असाहुया भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं / अहियं च असाहु सोयतो, से थणतो परिवेवती बहुं // 7 // 150 इह जीवियमेव पासहा, तरुणए वाससयाउ तुट्टती / इत्तरवासे व बुज्झहा, गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया // 8 // 144. जो साधक स्त्रियों से सेवित नहीं हैं, वे मुक्त (संसार-सागर-सन्तीर्ण) पुरुषों के समान कहे गये हैं। इसलिए कामिनी या कामिनी-जनित कामों के त्याग से ऊर्ध्व-ऊपर उठकर (मोक्ष) देखो। जिन्होंने काम-भोगों को रोगवत् देखा है, (वे महासत्त्व साधक भी मुक्त तुल्य हैं।) / 145. जैसे इस लोक में वणिकों- व्यापारियों के द्वारा (सुदूर देशों से) लाये हुए (वा लाकर भेंट किये हुए) उत्तमोत्तम सामान (पदार्थ) को राजा-महाराजा आदि सत्ताधीश या धनाढ्य लेते हैं, या खरीदते हैं, इसी प्रकार आचार्यों द्वारा प्रतिपादित रात्रिभोजनत्यागसहित पाँच परम (उत्कृष्ट) महाव्रतों को कामविजेता श्रमण ग्रहण-धारण करते हैं। 3 (क) समवायांग, समवाय 17 देखिए (ख) प्रवचन सारोद्धार द्वार, गाथा 555-556 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org