Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 160 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा आक्रोश परीषह के रुप में उपसर्ग 173. अप्पेगे पडिभासंति पाडिपंथियमागता / पडियारगया एते जे एते एवंजोविणो॥६॥ 174. अप्पेगे वइं जुजंति नगिणा पिंडोलमा ऽहमा / मुडा कंडूविणठेंगा उज्जल्ला असमाहिया // 10 // 175. एवं विप्पडिवणेगे अप्पणा तु अजाणगा। तमाओ ते तमं जंति मंदा मोहेण पाउडा // 11 // 173. कई (-पुण्यहीन) साधुजनों के प्रति द्रोही (प्रतिकूलाचारी) लोग (उन्हें देखकर) इस प्रकार प्रतिकूल बोलते हैं- ये जो भिक्षु इस प्रकार (भिक्षावृत्ति से) जी रहे हैं, ये (अपने) पूर्वकृत पापकर्मों का (फल भोग कर) बदला चुका रहे हैं। 174. कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये लोग नंगे हैं, परपिण्ड पर पलने वाले (टुकड़ेल) हैं, तथा अधम हैं, ये मुण्डित हैं, खुजली से इनके अंग गल गए हैं (या शरीर विकृत हो गए हैं), ये लोग सूखे पसोने से युक्त हैं तथा प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करने वाले दुष्ट या बीभत्स है। 175. इस प्रकार साधु और सन्मार्ग के द्रोही कई लोग स्वयं अज्ञानी; मोह से आवृत (घिरे हुए) और विवेकमूढ़ हैं / वे अज्ञानान्धकार से (निकल कर फिर) गहन अज्ञानान्धकार में जाते हैं। विवेचन-साधु द्वषीजनों द्वारा आक्रोश उपसर्ग-प्रस्तुत सूत्रगाथात्रय में साधु-विद्वषी प्रतिकूलाचारी लोगों द्वारा किये जाने वाले आक्रोशपरीषह रूप उपसर्ग का वर्णन है / साथ ही अन्त में, इस प्रकार द्रोह मोह-युक्त मूढजनों को मिलने वाले दुष्कर्म के परिणाम का निरूपण हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-पडिभासंति प्रतिकूल बोलते हैं, या चूणिकार सम्मत 'परिभासंति' पाठान्तर के अनुसार-परि-समन्ताद् भाषन्ते परिभाषन्ते अर्थात वे अत्यन्त बड़बड़ाते हैं। पाडिपंथियमागता r:=प्रतिकूलत्वं तेन चरन्ति-प्रातिपथिका:--साधुविद्वेषिण तद्भावमागतः कथञ्चित् पतिपथे वा दृष्टा अनार्याः / --अर्थात्-प्रतिपथ से यानो प्रतिकूलरूप से जो चलते हैं वे प्रातिपथिक है, अर्थात् साधु-विद्वषी है। साधुओं के प्रति द्वषभाव (द्रोह) पर उतरे हुए. कथञ्चित् असत्-पथ पर देखे गए अनार्य लोग। ____ पडियारगया-- वृत्तिकार के अनुसार-प्रतीकारः-पूर्वाचरितस्य कर्मणोऽनुभवस्तं गताः-प्राप्ताः --स्वकृतकर्मफल-मोगिन:=प्रतीकार अर्थात् पूर्वाचरित कर्मफल के अनुभव-भोग को गतप्राप्त / यानी स्वकृत पापकर्म का फल-भोग करते हैं / चूर्णिकार इसके बदले 'तद्दारयेदणिज्जे ते' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं'जेहि चेव दाहिं कतं तेहि चेव वेदिज्जतित्ति तदारवेदणिज्ज, जधा अदत्तादाणा तेण ण लभंते / अर्थात-जिन द्वारों (रूपों) में कर्म किये है, उन्हीं द्वारों से इन्हें भोगना पड़ेगा, जैसे-इन्होंने पूर्वजन्म में अदत्त (बिना दिया हुआ) आदान (ग्रण) कर लिया था (चोरी की थी), अत: अव ये विना दिया ले नहीं सकते। एक्जीविणो-इस प्रकार जीने वाले-अर्थात् भिक्षा के लिए ये दूसरों के घरों में घूमते है, इसलिए अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org