Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 204 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजा विवेचन- भोग निमन्त्रण रूप उपसर्ग और उनसे पराजित साधक-प्रस्तुत आठ सूत्र गाथाओं (166 से 203 तक) में साधु-जीवन में भोग निमन्त्रणरूप उपसर्ग कैसे-कैसे और किस रूप के अनुसार किनके निमित्त से आते हैं और मोहमूढ़ मनोदुर्बल साधक कैसे उन भोगों के जाल में फँस जाते हैं ? विस्तार पूर्वक यह वर्णन किया गया है। __ भोगों का निमन्त्रण देने वाले--सूत्रगाथा 166 के अनुसार साधु को भोगों का निमन्त्रण देकर कामभोगों एवं गृहवास के जाल में फंसाने वाले 4 कोटि के लोग होते हैं-(१) राजा-महाराजादि, (2) राजमन्त्री वर्ग, (3) ब्राह्मण वर्ग एवं (4) क्षत्रिय वर्ग / भोगपरायण शासक वग ही प्रायः भोग निमन्त्रणदाता प्रतीत होते हैं। वे अपने किसी लौकिक स्वार्थवश या स्वार्थपूर्ति हो जाने के बाद अथवा स्वयं के भोग में साधु बाधक न बने इस कारण साधुओं को भी अपने जैसा भोगासक्त बना देने का कुचक्र चलाते हैं। जैसे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने चित्त (चित्र) नामक साधु को विविध विषयों के उपभोग के लिए आमंत्रित किया था। भोग निमन्त्रण रूप उपसर्ग किस-किस रूप में ?-प्रथमरूप-पहले तो समुच्चय रूप से वे साधु को भोगों के लिए इस प्रकार आमंत्रित करते हैं-पधारिये, मुनिवर ! आप हमारे घर को पावन को जिए / जितने दिन आपकी इच्छा हो, खुशी से रहिये, आपके लिये यहाँ सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं / शास्त्रकार कहते हैं-निमंतयंति भोगहि"""साहजोविण / दूसरा रूप-~-इस पर जब सुविहित साधु सहसा भोगों का आसेवन करने में संकोच करता है, तब वे अपने यहाँ लाकर उन्हें खुल्लमखुल्ला भोग प्रलोभन देते हैं-- 'देखिये, महात्मन् ! ये हाथी, घोड़े, रथ और पालकी आदि सवारियाँ आपके लिए प्रस्तुत हैं। आपको मेरे गुरु होकर पैदल नहीं चलना है। इनमें जो भी सवारी आपको अभीष्ट हो, उसका मन चाहा उपयोग करें। और जब कभी आपका मन उचट जाए और सैर करने की इच्छा हो तो ये बाग-बगीचे हैं, इनमें आप मनचाहा भ्रमण करें, ताजे फूलों को सुगन्ध लें, प्राकृतिक सौन्दर्य की बहार का आनन्द लूटें / अथवा यह भी कह सकते हैं-'इन्द्रियों और मन को रंजित करने वाले अन्य खेलकूद, नाचगान, रंग राग आदि विहारों का भी आनन्द लें।' 'हम आपके परमभक्त हैं। आप जो भी आज्ञा देंगे, उसे हम सहर्ष शिरोधार्य करेंगे, आपकी पूजा प्रतिष्ठा में कोई कमी न आने देंगे। शास्त्रकार कहते हैं-"हत्यऽस्स ....."पूजयामु तं / ' तीसरा रूप-जब वे यह देखते हैं कि जब यह साधु इतनी भोग्य-सामग्री एवं सुख-सुविधाओं का उपभोग करने लग गया है, तब अन्तरंग मित्र बनकर संयम विघातक अन्यान्य भोगसामग्री के लिए आमन्त्रण देते हैं- महाभाग ! आयुष्मन् ! आप हमारे पूज्य में, आपके चरणों में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भोगसामग्री अर्पित है। आप इन उत्तमभोग्य साधनों का उपभोग करेंगे तो हम अपना अहोभाग्य समझेंगे ये चीनांशुक आदि मुलायम रेशमी वस्त्र हैं, ये इत्र, तेल, फुलैल, सुगन्धित चूर्ण, पुटपाक, आदि सुगन्धित पदार्थ हैं, ये हैं कड़े, बाजूबन्द, हार, अंगूठी आदि आभूषण, ये नवयुवती गौरवर्णा मृगनयनी सुन्दरियाँ हैं, ये गद्दे, तकिये, पलंग, पलंगपोश, मखमली शय्या आदि शयनीय सामग्री है, यह सब इन्द्रियों और मन को प्रसन्न करने वालो उत्तमोत्तम भोग्य सामग्री है / आप इनका खुलकर जी चाहा उपयोग करके अपने जीवन को सार्थक करें। हम इन भोग्यपदार्थों से आपका सत्कार करते हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org