Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 230 से 232 अपने स्वामित्व में रखते हैं, उन पर ममत्व करके आप परिग्रह-सेवन भी करते हैं। सुख प्राप्ति की धुन में रति-याचना करने वाली ललना के साथ काम-सेवन भी कर लेना सम्भव है / और सुख साधन आदि जुटाने की धुन में आप दूसरे के अधिकार को हरण एवं बेईमानी भी कन्ते हैं। यों सर्व प्रसिद्ध पाँचों पापाश्रवों में आप बेहट के प्रवृत्त होते हैं। फिर भला आपको संयमी कौन कहेगा / इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- “पाणाइवाते." परिग्गहे" 'सुख से सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार की मिथ्या मान्यता के कारण बौद्ध भिक्षुओं में पूर्णरूप से शिथिलाचार त्याप्त हो गया था, वे हिंसा आदि पांचों पापों में प्रवृत्त हो गये थे। शास्त्रकार द्वारा प्रतिपादित उक्त पांचों पापों का वौद्ध भिक्षुओं पर आक्षेप थेरगाथा में अंकित वर्णन से यथार्थ सिद्ध हो जाता है। थेरगाथा में यह भी शंका व्यक्त की गई है कि यदि ऐसी ही शिथिलता बनी रही तो बौद्ध शामन विनष्ट हो जाएगा। आज भिक्षुओं में ये पाप वासनाएँ उन्मत्त राक्षसों-मी खेल रही हैं। बासनाओं के बम होकर वे सांसारिक विषय भोगों की प्राप्ति के लिए यत्र-तत्र दौड़ लगाते हैं / असद्धर्म को श्रेष्ट मानते हैं / भिक्षा के लिए कुकृत्य करते हैं। वे सभी शिल्प सीखते हैं / गृहस्थों के समान आजीविका करते हैं / वे भिक्षु औषधों के विषय में वैद्यों की तरह, काम-धाम में गृहस्थों की तरह, विभूषा करने में गणिकावत् ऐश्वर्य में क्षत्रिय तुल्य हैं। वे धूर्त हैं, प्रवचक हैं, ठग हैं, असंयमी हैं। वे लोभवश धन संग्रह करते हैं, स्वार्थ के लिए धर्मोपदेश देते हैं. संघ में संघर्ष करते हैं आदि / 57 शिथिलाचारी बौद्धों के जीवन का यह कच्चा चिट्ठा बताता है कि एक मिथ्यामान्यता का उपसर्ग साधक को कितना विचार भ्रष्ट कर देता है। पाठातर और पटिन इ.ब्दों की व्याख्या-जे तत्थ आरियं मम परमं च समाहियं - वत्तिकार के अनुसार उस मोक्ष विचार के अवसर पर आर्यमार्ग (जैनेन्द्र प्रतिपादित मोक्ष मार्ग) जो परम समाधि युक्त (ज्ञानदर्शन चारित्रात्मक) है, उसे जो कई (शाक्यादि) अज्ञ छोड़ देते हैं, वे सदा संसावशवर्ती होते हैं। चाणकार ने जितस्थ आययिं गं परमं च समाधिता पाठान्तर मान कर अर्थ किया है--जिता नाम दुःख प्रव्रज्या कुर्वाणा अपि न मोरं गच्छत वयं सुखेनैव मोक्ष गच्छाम इत्यतो भवन्तो जिता: तेनास्मदीयार्यमार्गेण परमं ति समाधित्ति मनःसमाधिः परमा असमाधीए शारीरादिना दुःखेनेत्यर्थः' जिता कहते हैं-दुःखपूर्वक प्रव्रज्या करते हए, मोक्ष नहीं जा सकते हए भी हम सुखपूर्वक मोक्ष चले जाएँगे, इस प्रकार आप जित हैं, उस हमारे आर्य मार्ग से होने वाली मन:समाधि (को छोड़कर) शारीरिक दुःख से असमाधि (प्राप्त करते हैं)। इहमेगे उ भासंति= दार्शनिक क्षेत्र में कई कहते हैं / वहीं 'भासंति' के वदले 'मन्नति' पाठ है। उसका अर्थ 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66.67 17 (क) देखिये थेरगाथा में अंकित बौद्ध साधुओं की पापाचार प्रवत्ति का निey-...-. ..."भेसज्जेसू यथा वेज्जा, किच्चाकिच्चे यया गिही / गणिका व विभुसाय, इस्सरे खत्तिओ यथा / नेकनिका वचनका यूटसक्खा अपाटुका है बहूहि परिकप्पेहि आमिसं परिभुञ्जरे / (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखवोधिनी व्याख्या टिप्पण पु० 483 -थेरगाथा ह३८-९९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org