Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 206 से 210 बन जाता है, और इस प्रकार के संशयों में डूबता-उतराता रहता है-(क) पता नहीं, मैं जीवन के अन्त तक संयमपालन कर सकूगा या नहीं ? (ख) यदि सचमुच ही मुझे संयम छोड़ना पड़ा तो मेरे लिए कौन-सा मार्ग हितकर होगा? (ग) फिर इतने कठोर संयम के पालन का फल भी मिलेगा या नहीं ? यदि कुछ भी अच्छा फल न मिला तो इस व्यर्थ कष्ट सहन से क्या लाभ ? (घ) इससे तो बेहतर यही था कि मैं आराम की जिन्दगी जीता, यहाँ तो पद-पद पर कष्ट है। परन्तु आराम की जिन्दगी जीने के साधन न हुए तो मैं कैसे इसमें सफल हो पाऊँगा? (ङ) क्या मेरी पहली सीखी हुई विद्याएँ काम नहीं आएँगी ? (च) पर वे तो मोक्षमार्ग या संयम मार्ग से विरुद्ध होंगी; ऐसी स्थिति में अशुभकर्मों का बंध होने से मुझे सुख के बदले फिर दुःख ही दुःख नहीं उठाने पड़ेंगे ? इस प्रकार अल्पसत्त्व साधक की चित्तवृत्ति डांवाडोल एवं संशयशील हो जाती है। वह 'इतो म्रष्टस्ततो म्रष्टः' जैसी स्थिति में पड़ जाता है। फलतः वह अपनी तामसिक एवं राजसी बुद्धि से अज्ञान एवं मोह से प्रेरित संयम विरुद्ध चिन्तन और तदनुरूप कुकृत्य करता है। फिर भी उस अभागे का मनोरथ सिद्ध नहीं होता। ये सब आध्यात्मिक विषाद के रूप में स्वसंवेदन रूप उपसर्ग के नमूने हैं। जिनसे कायर साधक पराजित हो जाता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-वलयं यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितम, उदक रहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमन प्रवेशा= अर्थात् वलय का अर्थ है-जहाँ पानी वलय-चूड़ी के आकार के समान ठहरा हुआ हो / अथवा वलय का अर्थ है-जल से रहित सूखा गहरा गड्ढा, जिसमें कठिनता से निकलना और प्रवेश करना हो सके / गहणं-धवादिवृक्षः कटिसंस्थानीयम् --- गहन का अर्थ है-बह वन या स्थान जो धव (खैर) आदि वृक्षों से मनुष्य की कमर तक आच्छादित हो। नूम='प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकम्' अर्थात्-प्रच्छन्न (गुप्त) पवंत-गुफा आदि स्थान / अवसप्पामो नश्यामः / अर्थात्-भाग सकें या भागकर छिप सकें। उबेहति= उत्प्रेक्षा करता है-कल्पना करता है। “अवकप्पंति अवकल्पयन्ति, मन्यन्ते।" अर्थात्-व्याकरणादि शास्त्रों को संकट के समय रक्षा के लिए उपयुक्त मान लेते हैं विओवातं--चूर्णिकार के अनुसार"विओवातो णाम व्यापातः' अर्थात्-विओवातो का अर्थ है-व्यापात-विशेषरूप से (संयम से) पतन या विनाश / न णे अस्थि पप्पितं हमारे पास अपना प्रकल्पित पूर्वोपार्जित द्रव्य कुछ नहीं है, वितिगिच्छा समावण्णा='विचिकित्सा-चित्तविप्लुति / अर्थात् विचिकित्सा का अर्थ चित्त की उछलकूद है, मैंने यह जो संयमभार उठाया है, इसे मैं अन्त तक पार लगा सकूँगा या नहीं ? इस प्रकार के संशय से घिरे हुए। आत्मसंवेदन रुप उपसर्ग विजयी वीर साधक 206. जे उ संगामकालम्मि नाता सूरपुरंगमा। ण ते पिट्ठमुवेहति किं परं मरणं सिया // 6 // 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा० 2 पृ० 44 2 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 88-86 के आधार पर 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 88-89 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण), पृ० 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org