Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ -- 228 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा इस उपसर्ग से पीड़ित साधकों को अबक्शा -- अदूरदर्शी भोले-भाले मन्दपराक्रमी साधक जब भ्रान्तिजनक मिथ्यादृष्टि दुःशिक्षकों के चक्कर में आकर ऐसे उपसर्ग के आने पर झट फिसल जाते हैं। ऐसे साधकों की अवदशा को शास्त्रकार दो दृष्टान्तों द्वारा प्रतिपादित करते हैं---तत्य मन्दा विसोयन्ति"......... पिट्ठसप्पीय सम्भमे आशय यह है-ऐसे मन्द पराक्रमी साधक संयम के भार को वहन करने में इसी प्रकार की तीन पीड़ा महसूस करते हैं, जिस प्रकार वोझ से पीड़ित गधे चलने में दुःख महसूस करते हैं / अथवा ऐसे संयम में शिथिल हतोत्साह साधक अग्निकाण्ड आदि का उपद्रव होने पर हड़बड़ी में भागने वालों के पीछे लकडी के टकडों को हाथ में पकडकर सरक-सरक कर चलने वाले उस तेजी से मोक्ष की ओर जाने वाले साधकों के पीछे रोते-पीटते रेंगते हुए बेमन से चलते हैं। ऐसे कच्ची बुद्धि वाले साधक उपसर्ग पीड़ित होकर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। कठिन शब्दों की व्याख्या-आंहसु=कहते हैं / आहिता='आ समन्तात् ख्याता:--आख्याताः, प्रख्याताः राषित्वेन प्रसिद्धिमुपगता अर्थात्-पूरी तरह ख्यात यानी प्रख्यात, राजर्षि के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त / इह सम्मता= इहापि आईत-प्रवचने सम्मता अभिप्रेता-अर्थात् यहाँ ऋषिभाषित आदि आहत प्रवचन में भी इनमें से कई माने गये हैं। सम्भमे-अग्निकाण्ड आदि होने पर भगदड़ के समय / सुख से ही सुख प्राप्ति : मिथ्या मान्यता रूप उप्सर्ग 230. इहमेगे उ भासंति सातं सातेण विज्जती / जे तत्थ आरियं मगं परमं च समाहियं // 6 // 231. मां एवं अवमन्नता अप्पेणं लुम्पहा बहुं / एतस्स अमोक्खाए अयहारि व्व जूरहा // 7 // 232. पाणाइवाए वट्टता मुसावाए असंजता / अदिनादाणे वट्टता मेहुणे य परिग्गहे // 8 // 230. इस (मोक्ष प्राप्ति के) विषय में कई (मिथ्यादृष्टि बौद्ध) कहते हैं- 'सुख (साता) सुख से (साता से) ही प्राप्त होता है।' (परन्तु) अनन्तसुख रूप मोक्ष के विषय में जो आर्य (समस्त हेय धर्मों से दूर रहने वाला एवं तीर्थंकर प्रतिपादित) मार्ग (मोक्षमार्ग) है, तथा जो परमसमाधि रूप (ज्ञान-दर्शनचारित्रात्मक) है, (उसे) जो (छोड़ देते हैं, वे व्यामूढ़मति हैं।) 231. इस (जिनप्ररूपित मोक्षमार्ग) को तिरस्कृत करते हुए ('सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है', इस भ्रान्त मान्यता के शिकार होकर ठुकराते हुए) तुम (अन्य साधक) अल्प (तुच्छ) विषय सुख के लोभ से अत्यन्त मूल्यवान मोक्षसुख को मत बिगाड़ो (नष्ट मत करो)। (सुख से ही सुख प्राप्त होता है) इस मिथ्या मान्यता को नहीं छोड़ने पर सोने को छोड़ कर लोहा लेने वाले वणिक् की तरह पछताओगे। 10 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org