Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 206 सूत्रकृताग--तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिज्ञा चौथा प्रभाव-मन्द पराक्रमी (शिथिलाचारी) साधक उच्च संयमाचरण में फिर इतने दुर्बल होकर बैठ जाते हैं, जैसे मरियल बैल ऊँचे चढ़ाई वाले मार्ग पर चलने में अशक्त होकर बैठ जाता है। आशय यह है कि फिर वह पंचमहावत तथा साधुसमाचारी के भार को वहन करने में अशक्त, मनोदुर्बल होकर संयमभार को त्याग कर या संयम में शिथिल होकर नीची गर्दन करके बैठ जाता है। पांचा प्रभाव-फिर वे कठोर एवं नीरस संयम का पालन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाते हैं। छठा प्रभाव-तपस्या का नाम सुनते ही उनको बैचेनी हो जाती है। तपस्या से उन्हें बिच्छु के डंक-सी पीड़ा हो जाती है। सातवाँ प्रभाव-बूढे बैल जैसे ऊँची-चढ़ाई वाले मार्ग में कष्ट पाते हैं, वैसे ही वे संयम से हारेथके, अनुकूल उपसर्ग से पराजित विवेकमूढ़ साधक संयम साधना की ऊँचाइयों पर चढ़ने में पद-पद पर कष्टानुभव करते हैं। आठवां प्रभाव-वे फिर नाना भोग सामग्री में लुब्ध-मूच्छित हो जाते हैं, कामिनियों के प्रणय में आबद्ध-आसक्त हो जाते हैं, और कामभोगों में अधिकाधिक ग्रस्त रहते हैं। नौवा प्रभाव-ऐसे काम-भोगासक्त साधकों को फिर आचार्य आदि कितनी ही प्रेरणा दें, संयमी संयम जीवन में रहने की, किन्तु वे बिलकुल नहीं सुनते और गृहस्थजीवन स्वीकार करके ही दम लेते हैं / वे संयम में नहीं टिकते। पिछली साढ़े तीन गाथाओं (सू० गा० 200 के उत्तरार्द्ध से लेकर सू० गा० 203 तक) द्वारा शास्त्रकार ने उपभोग निमन्त्रण रूप उपसर्ग के मन्दसत्व साधक पर नौ प्रभावों का उल्लेख किया है। पाठान्तर-'भिक्खुभावम्मि सुन्वता' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'सम्बो सो चिढतो तधा' अर्थ होता है (जो भी तुमने आज तक यम-नियमों का आचरण किया है। वह सब ज्यों का त्यों (वैसा ही) रहेगा। कठिन शब्दों को व्याख्या-नीवारेण = वृत्तिकार के अनुसार-'बीहिविशेषकणदानेन-विशेष प्रकार के चावलों के कण डालकर। चूणिकार सम्मत पाठान्तर है-णीयारेण-अर्थ है-णीयारे कुण्डगादि-चावल आदि देकर / उज्जागं सि=चूर्णिकार के अनुसार-ऊवं यानम् उद्यानम् तच्च नदी, तीर्य-स्थलं गिरिपकमारो वा' ऊर्ध्वयान=चढ़ाई को उद्यान कहते है, वह हैं नदीतट, तीर्थस्थल पर्वतशिखर उस पर गमन करने में। वृत्तिकार के अनुसार-ऊध्वं यानमुद्यानम् मार्गस्योन्नतो भाग; उट्टद्यमित्यर्थः तस्मिन्नुद्यानशिरसि / अर्थात्मार्ग का उन्नत ऊँचा या उठा हुआ भाग उद्यान है / उस उद्यान के लिए-चोटी पर दूसरी बार उज्जाणंसि के बदले (202 सू० गाथा में) पंकसि पाठान्तर चूणिसम्मत प्रतीत होता है, क्योंकि इस वाक्य की व्याख्या चर्णिकार ने की है.-पके जीर्ण गौः जरद्गववत् ! अर्थात् कीचड़ में फंसे हुए बूढ़े बैल की तरह / ॥द्वितीय उद्देशक समाप्त // 8 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 86 से 88 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 435 से 443 तक के आधार पर 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 86 से 88 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ 36-37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org