Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 158 से 160 विवेचन-कोई भी त्राता एवं शरणदाता नहीं—प्रस्तुत तीन गाथाओं में अशरण-अनुप्रेक्षा (भावना) का विविध पहलुओं से चित्रण किया गया है-(१) अज्ञानी जीव धन, पशु एवं स्वजनों को भ्रमवश त्राता एवं शरणदाता मानता है, परन्तु कोई भी सजीव-निर्जीव त्राण एवं शरण नहीं देता। (2) दुःख, रोग, दुर्घटना, मृत्यु आदि आ पड़ने पर प्राणी को अकेले ही भोगना या परलोक जाना-आना पड़ता है। (3) विद्वान् (वस्तुतत्वज्ञ) पुरुष किसी भी पदार्थ को अपना शरणरूप नहीं मानता। (4) सभी प्राणी अपनेअपने पूर्वकृत कर्मानुसार विभिन्न अवस्थाओं (गतियों-योनियों) को प्राप्त किये हुए हैं। (5) समस्त प्राणी अव्यक्त दुःखों से दुःखित हैं / (6) दुष्कर्म करने वाले जीव जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु आदि से पीड़ित एवं भयाकुल होकर संसार चक्र में परिभ्रमण करते हैं। ___ धन आदि शरण योग्य एवं रक्षक क्यों नही ?-प्रश्न होता है कि धन आदि शरण्य एवं रक्षक क्यों नहीं होते ? इसके उत्तर में एक विद्वान् ने कहा है "रिद्धि सहावतरला, रोग-जरा-मंगुरं यसरीरं। दोण्हं पिगमणसीलाणं कियच्चिरं होज्ज संबंधो?" अर्थात्-ऋद्धि (धन-सम्पत्ति) स्वभाव से ही चंचल है, यह विनश्वर शरीर रोग और बुढ़ापे के कारण क्षणभंगुर है / अतः इन दोनों (गमनशील-नाशवान) पदार्थों का सम्बन्ध कब तक रह सकता है ? वास्तव में जिस शरीर के लिए धनादि वस्तुओं के संचय की इच्छा की जाती है, वह शरीर ही विनाशशील है। फिर वे धनादि चंचल पदार्थ शरीर आदि को कैसे नष्ट होने से बचा सकेंगे? कैसे उन्हें शरण दे सकेंगे? जिन पशुओं (हाथी, घोड़ा, बल, गाय, भैंस, बकरो आदि) को मनुष्य अपनी सुख-सुविधा, सुरक्षा एवं आराम के लिए रखता है, क्या वे मनुष्य की मृत्यु, व्याधि, जरा आदि को रोक सकते हैं ? वे ही स्वयं जरा मृत्यु, व्याधि आदि से ग्रस्त होते हैं। ऐसी स्थिति में वे मनुष्य की सुरक्षा कैसे कर सकते हैं ? युद्ध के समय योद्धा लोग हाथी, घोड़ा आदि को अपना रक्षक मानकर मोर्चे पर आगे कर देते हैं, परन्तु क्या वे उन्हें मृत्यु से बचा सकते हैं ? जो स्वयं अपनी मृत्यु आदि को रोक नहीं सकता, वह मनुष्य की कैसे रक्षा कर सकता है, शरण दे सकता है ? इसी प्रकार माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-बहन आदि ज्ञाति (स्व) जन भी स्वयं मृत्यु, जरा, व्याधि आदि से असुरक्षित है, फिर वे किसी की कैसे रक्षा कर सकेंगे, कैसे शरण दे सकेंगे? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'वितं पसवो""सरणं मण्णती।'-इसका आशय यही है कि धनादि पदार्थ शरण योग्य नहीं हैं, फिर भी अज्ञानी जीव मूढ़तावश इन्हें शरणरूप मानते हैं। वे व्यर्थ ही ममत्ववश मानते हैं कि 'ये सजीव-निर्जीव पदार्थ मेरे हैं, मैं भी उनका हूँ।४। 35 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा० 1, पृ० 261 से 265 तक का सार (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याल्या, पृ० 361 से 363 तक का सारांश (ग) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 75 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org