Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 155 से 157 171 सब पदार्थों में मत्सरहित होकर रहे-मूल में 'सम्वत्थ विणीयमच्छरे' पाठ है, उसका शब्दशः अर्थ तो यही होता है, किन्तु वृत्तिकार ने इसके दो और विशेष अर्थ प्रस्तुत किये हैं-(१) सर्वत्र यानी क्षेत्र, गृह, उपाधि, शरीर आदि पदार्थों की तृष्णा (लिप्सा) को मन से हटा दे, अथवा (2) सर्व पदार्थों के प्रति न तो राग या मोह करे, न ही द्वेष, घृणा या ईर्ष्या करे; क्योंकि मत्सर होगा, वहाँ द्वष तो होगा ही, जहाँ एक ओर द्वेष होगा, वहाँ दूसरी ओर राग-मोह अवश्यम्भावी है। साधक की मोक्षयात्रा में ये बाधक हैं; अतः इनसे दूर ही रहे। शुद्ध भिक्षाचरी क्या, क्यों और कैसे ? साधु भिक्षाजीवी होता है, परन्तु उसकी भिक्षाचरी 47 एषणा दोषों से रहित होनी चाहिए, वही विशुद्ध भिक्षा कहलाती है। औद्देशिक आदि दोषों से युक्त भिक्षा होगी तो साधु अहिंसा महाव्रत, संयम, एषणा समिति अथवा तप का आचरण यथार्थ रूप से नहीं कर सकेगा। दोषयुक्त भिक्षा ग्रहण एवं सेवन से साधु की तेजस्विता समाप्त हो जायेगी, उसमें नि:स्पृहता, निर्लोभता (मुत्ती), त्याग एवं अस्वादवृत्ति नहीं रह पायेगी / यहाँ भिक्षा के बदले शास्त्रकार ने 'उछ' शब्द का प्रयोग किया है, प्राकृत शब्दकोश के अनुसार उसका अर्थ होता हैं-"क्रमशः (कण-कण करके) लेना।' इसका तात्पर्य है-अनेक गृहस्थों के घरों से थोड़ी-थोड़ी भोजन सामग्री ग्रहण करना।" जाने सब, पर आधार सर्वोक्त शास्त्र का ले-साधु यद्यपि बहुत-सी चीजों को जानता-देखता है, उनमें कई हेय होती हैं, कई ज्ञय और कई उपादेय / साधु राजहंस की तरह सर्वज्ञोक्त शास्त्ररूपी चोंच द्वारा हेय-ज्ञय-उपादेय का नीर-क्षीर-विवेक करे, यही अभीष्ट है। अथवा सर्वज्ञोक्त पंचसंवर को आधारभूत मानकर उसी कसौटी पर उन पदार्थों को कसे और जो संवर के अनुकूल हो, उसे ग्रहण करे शेष को छोड़ दे या जानकर ही विराम करे / साधु स्वयं हेयादि का निर्णय करने जायेगा तो छद्मस्थता (अल्पज्ञता) वश गड़बड़ा जायेगा, इसलिए सर्वज्ञोक्त पंचसंवर के माध्यम से निर्णय करे।३१ ___सया जए-यह छोटा-सा आचरण सूत्र हैं, लेकिन इसमें गम्भीर अर्थ छिपा हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि साधु चलना-फिरना, उठना-सोना, खाना-पीना, बोलना आदि प्रत्येक क्रिया यत्नपूर्वक करे। वह इस बात का विवेक रखे कि इस प्रवृत्ति या क्रिया के करने में कहीं 'हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि आस्रवों से तो मैं नहीं लिप्त हो जाऊँगा? अगर कोई क्रिया हिंसादि दोषयुक्त हो, या भविष्य में अनर्थकारक, हिंसादि पापवर्द्धक हो तो उसे न करना। यह इस सूत्र का आशय है / 32 आय-परेका वृत्तिकार ने तो 'यतेताऽऽत्मनि परस्मिश्च' अपने और पर के सम्बन्ध में यत्न करे। यही अर्थ किया है, परन्तु हमारी दृष्टि से इसका दूसरा अर्थ 'आत्म-परायण हो' यह होना चाहिए। इसका आशय यह है कि साधु की प्रत्येक प्रवृत्ति आत्मा को केन्द्र में रखकर होनी चाहिए / जो प्रवृत्ति आत्मा के लिए अहितकर, आत्मशुद्धिबाधक, कर्मबन्धजनक एवं दोषवद्धक हो, आत्म-गुणों (ज्ञानादि रत्नत्रयादि) के 26 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 30 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ. 360 पर से 31 सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ. 360 32 दशवकालिक अ०४/गा० 1 से 6 तक की हारिभंद्रीय टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org