Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग : द्वितीय अध्ययन बेतालीय जिन मोक्ष साधक गुणों का निरूपण किया गया है, उस सम्बन्ध में अतीत, अनागत वर्तमान के सर्वज्ञ एक मत है, इतना ही नहीं काश्यप गोत्रीय भगवान् ऋषभदेव एवं भगवान् महावीर के धर्मानुगामी साधकों का भी यही मत है। 'सुव्वआ' - शब्द इस बात का सूचक है कि इन पुरुषों को जो सर्वज्ञता प्राप्त हुई थी, वह उत्तम व्रतों के पालन से ही हुई थी और होगी। तिविहेण वि पाणि मा हणे --संवुडे-यद्यपि मोक्ष-साधन तीन है-सम्यग् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र, परन्तु यहां केवल सम्यक् चारित्र (महाव्रतादि) से मुक्त-सिद्ध होने का जो वर्णन किया है-वह इस अपेक्षा पेक्षा से है कि जहां सम्यक चारित्र आयेगा, वहां सम्यक ज्ञान अवश्यम्भावी है और ज्ञान सम्यक् तभी होता है, जब दर्शन सम्यक् हों। अतः सम्यक् चारित्र में सम्यक् ज्ञान और सम्यग्दर्शन का समावेश हो ही जाता है / अथवा पूर्व गाथाओं में सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा ही जा चुका है, इसीलिए शास्त्रकार ने पुनरुक्ति न करते हुए इतना सा संकेत कर दिया है'एताई गुणाई आहु ते'। फिर भी शास्त्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में उक्त 'अगुणिस्स नत्यि मोक्खो"२ चारित्र गुण रहित को मोक्ष नहीं होता, इस सिद्धान्त की दृष्टि से यहां कुछ मूलभूत चारित्र गुणों का उल्लेख मात्र कर दिया है-'तिबिहेण वि पाणि मा हणे- / यहां सर्वचारित्र के प्रथम गुण---अहिंसा महाव्रत पालन का निर्देश समझ लेना चाहिए। अन्य चारित्र से सम्बन्ध मुख्य तीन गुणों का भी यहां उल्लेख है-(१) आत्महित तत्पर, (2) निदान (स्वर्गादि-सुख भोग प्राप्ति की वाञ्छा रूप) से मुक्त, तथा (3) सुव्रत (तीन गुप्तियों से गुप्त, या पंचसंवर से युक्त / ) निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान युक्त चारित्र गुणों से अतीत में अनन्त जीव सिद्ध मुक्त हुए हैं, भविष्य में भी होंगे और वर्तमान में भी। चूणि कार के 'संपतंसंखेज्जा सिझंति' इस मतानुसार 'वर्तमान में संख्यात जीव सिद्ध होते हैं। 164. एवं से उदाहु अणत्तरनाणी अणुत्तरदसी अणुत्तरनाणदंसणधरे / __ अरहा णायपुते भगवं वेसालीए वियाहिए // 22 // त्ति 164. इस प्रकार उस (भगवान् ऋषभदेव स्वामी) ने कहा था, जिसे अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तर ज्ञान-दर्शन-धारक, इन्द्रादि देवों द्वारा पूजनीय (अर्हन्त) ज्ञातपुत्र तथा ऐश्वर्यादि गुण युक्त भगवान् वैशालिक महावीर स्वामी ने वैशाली नगरी में कहा था-'सो मैं (सुधर्मा स्वामी) तुमसे (जम्बू स्वामो आदि शिल्य वर्ग से) कहता हूँ।' विवेचन--प्रस्तुत गाथा वैतालीय या वैदारिक अध्ययन की अन्तिम गाथा है। इसमें इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी आदि से इस अध्ययन रचना का 42 (क) देखिए उत्तराध्ययन (अ० 20/30) में मोक्ष-विषयक सिद्धान्त 'नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा ण हुँति चरण गुणा / अगुणिस्स नस्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स निवाणं / / ' (ख) (अ) सूत्रकृतांग शीलाक वृत्ति सहित भाषानुबाद भा०१, पृ० 268 पर से (ब) सूय गडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org