Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 164 176 इतिहास बताते हुए कहते हैं—एवं से उदाहु-वेसालिए वियाहिए'। इसका आशय यह है कि तीन उद्देशकों से युक्त इस वेतालीय अध्ययन में जो उपदेश है, वह आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने 18 पुत्रों को लक्ष्य करके अष्टापद पर्वत पर दिया था, उसे ही भगवान महावीर स्वामी ने हमें (गणधरों को) विशाला नगरी में फरमाया था। उसी उपदेश को मैं तुमसे कहता हूँ।' भगवान महावीर के विशेषणों के अर्थ-प्रस्तुत गाथा में भगवान महावीर के 7 विशेषण उनकी मोक्ष प्राप्ति की गुणवत्ता एवं योग्यता बताने के लिए प्रयुक्त किये गये हैं। उनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार हैंअणुत्तर पाणी-केवलज्ञानी जिससे उत्तम (बढ़कर और कोई ज्ञान कहीं ऐसे अनुत्तर ज्ञान से सम्पन्न / अगुत्तरदंसी केवलदर्शन, जिससे बढ़कर कोई दर्शन न हो, ऐसे अनुत्तर दर्शन से सम्पन्न / अणुत्तर णाणदंसण धरे=केवल (अनुत्तर) ज्ञान-दर्शन के धारक / मरहा=इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य अहंन् / नायपुत्त =ज्ञातृकुल में उत्पन्न होने से ज्ञातपुत्र। भगवं ऐश्वर्यादि छः गुणों से युक्त भगवान् / बेसालिए-इसके संस्कृत में दो रूप बनते हैं वैशालिकः और वैशाल्याम / अतः 'वैसालिए' के तीन अर्थ निकलते हैं--(१) वैशाली अथवा विशाला नगरी में किया गया प्रवचन, (2) विशाल कुल में उत्पन्न होने से वैशालिक भगवान् ऋषभदेव, (3) अथवा वैशालिक भगवान् महावीर। पिछले अर्थ का समर्थन करने वाली एक गाथा वृत्तिकार ने दी - "विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा। विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः // 3 अर्थात् (भगवान महावीर) की माता विशाला थी, उनका कुल भी विशाल था, तथा उनका प्रवचन भी विशाल था, इसलिए जिनेन्द्र (भगवान् महावीर) को वैशालिक कहा गया है। इसलिए 'सालिए वियाहिए' का अर्थ हुआ-(१) वैशाली नगरी में (यह उपदेश) कहा गया था, अथवा (2) वैशालिक भगवान् महावीर ने (इसका) व्याख्यान किया था। अधिक गाथा-एक प्रति में चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के द्वारा व्याख्या न की हुई एक गाथा इस अध्ययन के अन्त में मिलती है 'इति कम्मवियालमुत्तमं जिणवरेण सुदेसियं सया / जे आचरंति आहियं खवितरया वाहति ते सिवं गति / 44 ति बेमि अर्थ-इस प्रकार उत्तम कर्मविदार नामक अध्ययन का उपदेश श्री जिनवर ने स्वयं फरमाया है, इसमें कथित उपदेश के अनुसार जो आचरण करते हैं, वे अपने कर्मरज का क्षय करके मोक्षगति प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। तृतीय उद्देशक समाप्त // वैतालीय : द्वितीय अध्ययन सम्पूर्ण // 43 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 76 के आधार पर 44 सूयगडंग सुत्तं मूल (जम्बूविजयजी-सम्पादित) पृ० 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org