Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 162 से 163 177 __ अर्थात--जो पुरुष उपलब्ध बोधि को सार्थक नहीं करता और भविष्य काल में बोधि प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है अर्थात् यह चाहता है कि मुझे भविष्य में बोधि मिले, वह दूसरों को बोधि देकर क्या मूल्य चुकाकर पुनः बोधि लाभ करेगा? तात्पर्य यह है कि आत्महितार्थी साधक को दीर्घदृष्टि से यह सोचना चाहिए कि अगर एक बार बोधिलाभ का अवसर खो दिया तो अर्धपुद्गल-परावर्तन काल तक फिर बोधि (सम्यक्त्व) प्राप्त करना दुर्लभ होगा। अतः साधक सदैव बोधि दुर्लभता का ध्यान रखे / वह अपने अंतरतम में झांककर सदैव पता लगाता रहे कि बोधि-लाभ को सार्थक करने का कोई भी क्षण खोय तो नहीं है। बोधिदुर्लभता का यह उपदेश केवल शास्त्रकार ही नहीं कर रहे हैं। अष्टापद पर्वत पर प्रथम तीर्थंकर ने अपने पुत्रों को यह उपदेश दिया था, शेष तीर्थंकरों ने भी यही बात कही है। पाठान्तर 'अहियासए' के बदले 'अधियासए' पाठान्तर भी है, जिसका अर्थ होता है-'परिषहोपसर्गो को समभाव से सहन करे। भिक्षुओं के मोक्षसाधक गुणों में ऐकमल्य 162. अविसु पुरा वि भिक्खवो, आएसा वि भविसु सुव्वता। एताई गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो // 20 // 163. तिविहेण वि पाणि मा हणे, आयहिते अणियाण संवुडे / एवं सिद्धा अणंतगा, संपति जे य अणागयाऽवरे // 21 // 162. भिक्ष ओ ! पूर्वकाल में भी जो (सर्वज्ञ) हो चुके हैं और भविष्य में भी जो होंगे, उन सुव्रत पुरुषों ने इन्हीं गुणों को (मोक्ष साधन) कहा है। काश्यपगोत्रीय (भगवान् ऋषभदेव एवं भगवान् महावीर स्वामी) के धर्मानुगामी साधकों ने भी यही कहा है। 163. मन, वचन और काया इन तीनों से प्राणियों का प्राणातिपात (हिंसा) न करे तथा-हित (अपने कल्याण) में रत रहे, स्वर्गादि सुखों की वाञ्छा (निदान) से रहित, सुव्रत होकर रहे। इस प्रकार (रत्नत्रय की साधना से) अनन्त जीव (भूतकाल में) सिद्ध-मुक्त हुए हैं, (वर्तमानकाल में हो रहे हैं) और भविष्य में भी अनन्त जोव सिद्ध-बुद्ध मुक्त होंगे। विवेचन--भिक्षओं के मोक्षसाधक गुण : सभी तीर्थंकरों का एकमत-प्रस्तुत गाथाद्वय में पूर्वोक्त गाथाओं में निरूपित मोक्ष साधक गुणों के सम्बन्ध में सभी तीर्थंकरों की एक वाक्यता बतायी गयी है, तथा पंचमहाब्रत आदि अन्य चारित्र गुणों से युक्त साधकों को तीनों कालों में मुक्ति भी बतायी गयी है।" 'अविसु पुरावि....एताइगुणाई आएमा-- |' इस गाथा पंक्ति का आशय यह है कि पूर्व गाथाओं में 40 सूत्रकृतांम शीलांक वृत्ति पृ० 75 41 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org