Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अर्थात्-विधाता (कर्मरूपी विधाता ने दो भ्रम (संसार परिभ्रमण के कारण) पैदा किये हैं-एक तो कामिनियों में, दूसरा कनक में / उन कामनियों में और उन धन-साधनों में जो अनासक्त है. समझ लो मनुष्य की आकृति में वह साक्षात् परमात्मा है।" काम सामग्री के बदले मोक्ष सामग्री ग्रहण करना ही अभीष्ट-साधु-जीवन का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है, और मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक, सम्यक्चारित्र का ध्यान करना आवश्यक है। किन्तु अगर कोई साधक इस तथ्य को भूलकर मोक्षसामग्री के लिए कामसामग्री (स्त्री तथा अन्य पंचेन्द्रिय विषय आदि) इकट्ठी करने लगे, या इन्हीं के चिन्तन में रात-दिन डूबे रहे तो यह उसकी उच्चश्रेणी के अनुरूप नहीं है। इसीलिए १४५वीं गाथा में कहा गया है- 'अग्गं वणिएहि आहियं सराइ भोयणा' / इसका तात्पर्य यह है कि व्यापारियों के द्वारा दूर देश से लाया हुआ उत्तम पदार्थ राजादि ले लेते हैं वैसे साधु आचार्यों द्वारा प्रतिपादित या प्रदत्त रात्रि-भोजन विरमण व्रत सहित पंचमहाब्रतों को ही धारण करे। काम सामग्री को नहीं। काम-भोगों में आसक्त : समाधिसुख से अनभिज्ञ-शास्त्रकार ने इस गाथा 146 के द्वारा उन लोगों की आँखें खोल दी हैं कि जो तच्छ प्रकृति के लोग साधवेष धारण करके भी परीषहों-उपसर्गों से घबराकर रात-दिन सुख-सुविधाओं के पीछे या वैषयिक सुखों की तलाश में भाग-दौड़ करते रहते हैं वे अपनी समृद्धि (पद प्रसिद्धि एवं धनिक भक्तों द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा), रस (स्वाद) एवं साता (सुख-सुविधाओं) के अहंकार (गौरव) में डूबे हुए तथा काम-भोगों में इतने आसक्त रहते हैं कि उन्हें समाधि के परम सुख को जानने-समझने की भी परवाह नहीं रहती। इसे ही शास्त्रकार कहते हैं- "जे इह सायाणुगासमाहिमाहियं / " इसके द्वारा शास्त्रकार यह कहना चाहते हैं कि सुख भोगों के पीछे पड़कर वास्तविक सुख और बहुमूल्य जीवन को नष्ट कर डालना बुद्धिमानी नहीं है। काम, कामनाओं या सुख-सुविधाओं के पीछे दीवाने बन श्वेत वस्त्र सम अपने संयम को मलिन बनाने से सारी ही मोक्ष सुख-साधना चौपट हो जाती हैं 10 काम-भोगों को चाट छुटती नहीं-जैसे मरियल बैल चाबुकों की मार खाकर भी विषम मार्ग में चल नहीं पाता, भार ढो नहीं सकता और अन्त में वह कीचड़ आदि में फँसकर दुःख पाता है, वैसे ही काम-भोगों का गुलाम और दुर्बल मन का साधक गुरुवचनों की फटकार पड़ने पर भी परीषहादि सहन रूप विषम मार्ग में चल नहीं पाता, नाम की एषणा छोड़ न पाने के कारण वह संयम का भार ढो नहीं सकता और अन्त में शब्दादि विषय-भोगों के कीचड़ में फंसकर दुःखी होता है। यही तथ्य (147-148) 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ०७१ में उद्धृत 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति० पृ०७१ के आधार पर इस गाथा की व्याख्या में चूणिकार ने दो मतों का उल्लेख किया है-पूर्व में रहने वाले आचार्यों के मत का एवं पश्चिम दिशा में रहने वाले आचार्यों के मत का / सम्भव है-चूणिकार का तात्पर्य पूर्व दिशागत मथुरा या पाटलिपुत्र के सम्बन्ध से स्कन्दिलाचार्य आदि से एवं पश्चिम दिशागत वल्लभी के सम्बन्ध से नागार्जुन या देवद्धिगणि क्षमाश्रमण आदि से हो। - साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग 1 पृ० 141 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org