Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय 153. अद्रष्टावत् (अन्धतुल्य) पुरुष ! प्रत्यक्षदर्शी (सर्वज्ञ) द्वारा कथित दर्शन (सिद्धान्त) में श्रद्धा करो। हे असर्वज्ञदर्शन पुरुषो ! स्वयंकृत मोहनीय कर्म से जिसकी दृष्टि (ज्ञान दृष्टि) अवरुद्ध (बन्द) हो गई है; (वह सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त को नहीं मानता) यह समझ लो। 154. दुःखी जीव पुनः-पुनः मोह-विवेकमूढ़ता को प्राप्त करता है। (अतः मोहजनक) अपनी स्तुति (श्लाघा) और पूजा (सत्कार-प्रतिष्ठा) से साधु को विरक्त रहना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानदर्शन-चारित्र-सम्पन्न (सहित) संयमी साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य देखे। विवेचन-सम्यग्दर्शन में साधक एवं बाधक तत्व-इन दो सूत्रगाथाओं में सम्यग्दर्शन में साधकबाधक निम्नोक्त 6 तथ्यों का दिग्दर्शन कराया गया है-(१) सम्यग्द्रष्टा बनने के लिए केवलज्ञान-केवल दर्शन-सम्पन्न वीतरागोक्त-दर्शन (सिद्धान्त) पर दृढ़ श्रद्धा करो, (2) स्वयंकृत मोहकर्म के कारण सम्यग्दृष्टि अवरुद्ध हो जाने से व्यक्ति सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त पर श्रद्धा नहीं करता, (3) अज्ञान एवं मिथ्यात्व के कारण जीव दुःखी होता है, (4) दुःखी जीव बार-बार अपनी दृष्टि एवं बुद्धि पर पर्दा पड़ जाने के कारण विवेकमूढ़ (मोह-प्राप्त) होता है, (5) साधक को मोह पैदा करने वाली आत्मश्लाधा और पूजा से विरक्त रहना चाहिए, (6) समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य देखने वाला संयमी साधु ही सम्यग्दर्शी एवं रत्नत्रय सम्पन्न होता है / 'अक्खु व दक्खुवाहितं सद्दहसू'--'अद्दक्खूव' यह सम्बोधन हैं। संस्कृत में इसके पाँच रूप वृत्तिकार ने प्रस्तुत किये हैं-(१) हे अपश्यवत् / (2) हे अपश्यदर्शन ! (3) अदक्षवत् / (4) अदृष्टदर्शिन् / (5) अद्दष्टदर्शन / इनके अर्थ क्रमश: इस प्रकार हैं (1) जो देखता है, वह 'पश्य' है, जो नहीं देखता वह 'अपश्य कहलाता है। अपश्य को व्यवहार में अन्धा कहते हैं / यहाँ दार्शनिक क्षेत्र में द्रव्य-अन्ध से मतलब नहीं है, भाव-अन्ध ही यहाँ विवक्षित है / भावअन्ध तुल्य यहाँ तीन कारणों से माना गया है-(क) एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के कारण, (ख) कर्तव्य-अकर्तव्य, हिताहित के विवेक से रहित होने के कारण, (ग) व्यवहार मात्र का लोप हो जाने के कारण / (2) 'पश्य' कहते हैं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी को, अपश्य कहते हैं-जो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नहीं है, उसे / अतः यहाँ 'अपश्यदर्शन' का अर्थ हुआ हे असर्वज्ञ-असर्वदर्शी के दर्शन को मानने वाले पुरुष ! इसे दूसरे शब्दों में 'अन्य दर्शानानुयायी पुरुष' कह सकते हैं। (3) दक्ष का अर्थ है निपुण / दर्शनिक क्षेत्र में निपुण उसे कहते हैं, जो प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से तत्व को सिद्ध करने में निपुण हो। जो ऐसा न हो, वह 'अदक्ष' कहलाता है। अतः 'अवक्षवत्' का अर्थ हुआ-'हे अदक्ष के समान पुरुष।' अदृष्टदशिन्–अदृष्ट उसे कहते हैं-जैसे सूक्ष्म, व्यवहित, दूर, परोक्ष (क्षेत्र और काल से) भविष्य एवं इन्द्रिय-क्षीणता आदि के कारण सूक्ष्मादि पदार्थ दृष्ट नहीं है-दिखाई नहीं देते / इस कारण उसे 18 सूत्रकृतोग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भाग-१, पृष्ट 284 से 287 तक का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org