Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अनेक प्रकार का होता है-जैसे भोजन पकाना, हरी वनस्पति तोड़ना, मकान बनवाना, जमीन खोदना, खेती करना, आग जलाना; कलकारखाने चलाना; युद्ध करना, लड़ाई-झगड़े करना दूसरों को सताना, मारपीट, दंगा, आगजनी, चोरी, डकैती. धोखाधड़ी आदि सब प्रकार की हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापजनक (सावद्य) कार्य आरम्भ हैं / " आत्म-कल्याण की इच्छा रखने वाले को सभी प्रकार के आरम्भों का त्याग करना आवश्यक है। परन्तु कई साधक शरीर या जीवन की सुख-सुविधा के मोह में पड़कर ऐसे आरम्भों में स्वयं प्रवृत्त हो जाते हैं, अथवा दूसरों से करवाते हैं / इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी वृत्ति इतनी आरम्भाश्रित हो जाती हैं कि वे आरम्भ के बिना जी नहीं सकते। ऐसे आत्मार्थी साधक दूसरे प्राणियों को दण्डित (हिंसा) करने के बदले उक्त आरम्भजन्य पाप कर्म के कारण स्वयं आत्मा (निज) को उनके फलस्वरूप दण्डित करते हैं। वास्तव में आरम्भ आसक्त साधक एकान्तलूसक (प्राणि-हिंसक) या सत्कर्म के ध्वंसक है। उक्त आरम्भासक्ति के फलस्वरूप बे या तो मरकर पापलोक में जाते हैं। पापलोक से यहाँ शास्त्रकार का तात्पर्य पापियों के लोक से है, वह पापियों का लोक नरक तो है ही तिर्यंचगति भी है, और मनुष्यगति में भी निकृष्ट पापी-म्लेच्छ क्षेत्र सम्भव हैं अथवा कदाचित् ऐसे व्यक्ति वालतप या अकाम-निर्जरा कर लेते हैं तो उसके फलस्वरूप मरकर वे आसुरी योनि में उत्पन्न होते हैं / 'आसुरियं दिसं' की व्याख्या वृत्तिकार इस प्रकार करते हैं- 'असुराणामियं आसुरी, तां दिशं यन्ति, अपरप्रेष्याः किल्विषिकाः देवाधमाः भवन्तीत्यर्थः / " असुरों की दिशा आसुरी दिशा है, वे आसुरी दिशा में जाते हैं, अर्थात् दूसरों के दासरूप किल्विषी देव बनते हैं, परमाधार्मिक असुर बनते हैं। चूर्णिकार 'मासूरिय' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-'न तत्थ सूरो विद्यते'-अर्थात् जहाँ सूर्य नहीं होता है, यानी सूर्य प्रकाश के बिना अन्धकार छाया रहता है, द्रव्य अन्धकार भी तथा अज्ञान मोहरूप भावान्धकार भी। जैसे कि ईशावस्योपनिषत् में कहा है असुर्यानाम ते लोका अन्धेन समसावृताः / तांस्ते प्रेत्यभिगच्छन्ति, ये केचात्महनो जनाः।" अर्थात् असूर्य नामक लोक वे हैं, जो गाढ़ अन्धकार से आवृत्त हैं। जो कोई भी आत्मघातक (आत्मदण्डक) जन हैं, वे यहाँ से भरकर उन लोकों में जाते हैं / 15 वर्तमानदर्शी अज्ञानी जीवों की मनोवृत्ति एवं पापप्रवृत्ति- गाथा 152 में सर्वप्रथम उन अज्ञानियों की मनोदशा बतायी है कि यह तो प्रत्यक्ष अनुभव है कि यह प्रत्यक्ष दृश्यमान जीवन; आयुष्य के टूटने पर 14 (क) अभिधान राजेन्द्रकोश भाग 1 'आरम्म' शब्द देखिए। (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 72-73 15 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० 73 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण), पृ० 27 (ग) ईशावास्योपनिषद श्लोक 3 (घ) वैदिक मतानुसार 'दक्षिण दिशा' --असुरों की दिशा है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org