Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 162 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-बैंतालीय "सल्लं कामा, विसं कामा. कामा आसीविसोपमा / कामे पत्थेमाणा मकामा जंति दुग्गई।" अर्थात्-ये काम शल्य के समान है, काम विषवत् है, काम आशीविष सर्प तुल्य हैं, जो व्यक्ति कामभोगों की लालसा करते हैं, वे काम-भोग न भोगने पर भी, केवल कामभोग की लालसा मात्र से ही दुर्गति में चले जाते हैं। दूसरी युक्ति यह दी गयी है कि मनुष्य की जिन्दगी कितनी अल्प है ? कई लोग जवानी में और कई बचपन में ही चल देते हैं। इतनी छोटी-सी अल्पकालीन जिन्दगी है, उसमें भी साधारण मनुष्यों की आयु सोपक्रमी (अकाल में ही नष्ट होने वाली) होती है / वह कब, किस दुर्घटना से या रोगादि निमित्त से समाप्त हो जायेगी, कोई पता नहीं। ऐसी स्थिति में कौन दूरदर्शी साधक अपनी अमूल्य, किन्तु अल्प स्थायी जिन्दगी को कामभोगों में खोकर अपने आपको नरकादि दुर्गतियों में डालना चाहेगा ? वर्तमान काल में मनुष्य की औसत आयु 100 वर्ष की मानी जाती है, वह भी अकाल में ही नष्ट हो जाने पर घहुत थोड़ी रहती है। सागरोपम कालिक आयु के समक्ष तो यह आयु पलक झपकने समान है। जीवन की ऐसी अनित्यता, अस्थिरता एवं अनिश्चितता जानकर क्षुद्रप्रकृति के जीव ही शब्दादि कामभोगों में आसक्त हो सकते हैं, बुद्धिमान साधक नहीं। बुद्धिमान दूरदर्शी साधक को कामत्याग के लिए दो बातों की प्रेरणा दी है - "अच्चेही अणुसास अप्पगं।" अर्थात्-(१) साधु को पहले से ही सावधान होकर इन कामभोगों से अपने आपको मुक्त (दूर) रखना चाहिए, और (2) कदाचित पूर्वभुक्त कामभोग स्मृति-पट पर आ जाए या कभी काम-कामना मन में उत्पन्न हो जाये तो अविलम्ब उस पर नियन्त्रण करना चाहिए, आत्मा को इस प्रकार अनुशासित (प्रशिक्षित) करना चाहिए-“हे आत्मन् ! पहले ही हिंसादि पापकर्मों के कारण पुण्यहीन हुआ है, फिर कामभोग-सेवन करके या कामभोगों की अभिलाषा करके क्यों नये कम बांधता है ? क्या इनका दुष्परिणाम नहीं भोगना पड़ेगा ?" इस प्रकार मन में काम का विचार आते ही उसे खदेड़ दे / 12 कठिन शब्दों को व्याख्या-अग्ग= प्रधान या वरिष्ठ रत्न, वस्त्र, आभूषण आदि। आहियं-देशान्तर से लाये हुए। राइणिया=राजा या राजा के समान, सामन्त, जागीरदार आदि शासक। अज्झोववन्ना= समृद्धि, रस और साता इन तीन गौरवों में गृद्ध आसक्त / किवणेण समं पगभिया=इन्द्रियों के गुलाम (इन्द्रियों से पराजित) होने के कारण दीन, बेचारे, दयनीय, इन्द्रियलम्पट के समान काम-सेवन में ढीठाई धारण किए हुए / समाहि=धर्मध्यानादि, या मोक्ष सुख / वाहेण जहा व विच्छते..."=वृत्तिकार के अनुसार 12 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 72 (ख) सूयगडंग चर्णि में 'तरुणए स दुब्बलं वाससयं तिउति' इस प्रकार का पाठान्तर मानकर अर्थ किया गया है-- "तरुणगो असम्पूर्णवया अन्यो वा कश्चित्, दुर्बलं वाससयं परमायुः, ततो तिउति / " अर्थात् तरुण का अर्थ है-अपूर्ण बय वाला अथवा और कोई, शतवर्ष की परमायु (उत्कृष्ट आयु) होने पर भी दुर्बल होने से बीच में टूट जाती है। -सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ. 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org