Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय उद्देशक : गापा 151 से 152 -~'वाह' अर्थात् व्याध (शिकारी) जैसे मृगादि पशु विविध प्रकार के कूटपाश आदि से क्षत-घायल, परवश किया हुआ, या थकाया हुआ दुर्बल हो जाता है। दूसरा अर्थ है-'वाह' यानी शाकटिकनगाड़ीवान वह गाड़ी को ठीक से चलाने के लिए चाबुक आदि से प्रहार करके चलने को प्रेरित करता है। अप्पयामा अल्पसामर्थ्य वाला / कामेसणं विऊ-कामभोगों के अन्वेषण में विद्वान्(निपुण) पुरुष / असाधुता =कुगतिगमन आदि रूप दुःस्थिति-दुर्दशा। सोयती शोक करता है / थणति=सिसकता है या सशब्द निःश्वास छोड़ता हैं। परिदेवती=विलाप करता है, बहुत रोता-चिल्लाता है। वाससबाउ-सौ वर्ष से। इत्तरवासेवम्-थोड़े दिन के निवास के समान / आरम्भ एवं पाप में आसक्त प्राणियों की गति एवं मनोदशा 151. जे इह आरंभनिस्सिया, आयड एगंतल सगा। गंता ते पावलोगयं, चिररायं आसुरियं विसं // 6 // 152. ण य संखयमाहु जोवियं, तह वि य बालजणे पगम्भती। पच्चुप्पन्नण कारितं, के दुदु परलोगमागते // 10 151. इस लोक में जो मनुष्य आरम्भ में आसक्त, आत्मा को दण्ड देने वाले एवं एकान्त रूप से प्राणि-हिंसक हैं, वे चिरकाल के लिए पापलोक (नरक) में जाते हैं, (कदाचित् बालतप आदि के कारण देव हों तो) आसुरी दिशा में जाते हैं। 152. (सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है-यह जीवन संस्कृत करने (जोड़ने) योग्य नहीं हैं, तथापि अज्ञानीजन (पाप करने में) धृष्टता करते हैं / (वे कहते हैं-) (हमें तो) वर्तमान (सुख) से काम (प्रयोजन) है, परलोक को देखकर कौन आया है ? विवेचन-आरम्भासक्त एवं पापाचरण धृष्ट व्यक्तियों की दशा-यहाँ सूत्रगाथाद्वय में से प्रथम में आरम्भजीवी या आरम्भाधित साधकों की दशा का और द्वितीय गाथा में वर्तमानदर्शी अज्ञानीजनों की मनोदशा का वर्णन किया है। अरम्भासक्त साधक: दुष्कृत्य और उनका फल-आरम्भ निश्रित साधकों के लिए यहाँ दो विशेषण ध्यान देने योग्य हैं-"आयदंडा तथा एगंतलूस गा।' यहाँ शास्त्रकार ने आरम्भनिश्रित शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ वृत्तिकार करते हैं-'आरम्भों यानी हिंसादि सावद्यानुष्ठान रूप कार्यों में जो निश्चयतः (निःसंकोच) श्रित-यानी सम्बद्ध हैं, आरम्भ पर ही आश्रित हैं, आसक्त हैं।' ___ आरम्भ जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है, उसका एक खास अर्थ है / जिस कार्य या प्रवृत्ति से जीवों का द्रव्य और भाव से, चारों ओर से प्राणातिपात (हिंसा) हो, उसे 'आरम्भ' कहते हैं। आरम्भ 13 (क) सूत्रकृतांग शीलोक वृत्ति पत्र 70-72 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 26-27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org