Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 84-85 समस्त प्राणी अहिंस्य क्यों ? --प्रस्तुत गाथा में संसार के समस्त जीव अहिंस्य क्यों हैं ? अर्थात् जीव हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए ? इसके तीन कारण बताये हैं (1) इस दृश्यमान त्रस-स्थावर जीव रूप जगत् की मन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ (योग) अथवा बाल्य-यौवन-वृद्धत्व आदि (अवस्थाएँ) स्थूल (प्रत्यक्ष) हैं, (2) स्थावर-जंगम सभी प्राणियों की पर्याय-अवस्थाएँ सदैव एक-सी नहीं रहतीं, तथा (3) सभी प्राणी शारीरिक-मानसिक दुःखों से पीड़ित रहते हैं, अथवा सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है। बहुत से मतवादियों का कथन है आत्मा कूटस्थनित्य, एक-से स्वभाव का, उत्पत्ति-विनाश से रहित है, इसलिए वे यह तथ्य प्रस्तुत करते हैं कि आत्मा की बाल्यादि अवस्थाएं नहीं होती, न ही अवस्था परिवर्तन होता है, और न कभी सुख-दुःख आदि होते हैं, इसलिए किसी जीव को मारने-पीटने, सताने आदि से कोई हिंसा नहीं होती है। यह वाद दीघनिकाय में वर्णित पकुद्धकात्यायन के अकृततावाद से प्रायः मिलता-जुलता है। इसी मिथ्यात्वग्रस्त पर-समय का निराकरण करने हेतु आत्मा की कथंचित् अनित्यता, परिणामर्मिता तथा तदनुसार सुख-दुःखादि प्राप्ति, दुःख से अरुचि आदि स्वसमय का प्रतिपादन किया गया है और यह स्पष्ट बता दिया गया है कि समस्त प्राणि-जगत् की विविध चेष्टाएँ तथा बाल्यादि अवस्थाएँ प्रत्यक्ष हैं, अवस्थाएँ (पर्यायें) भी सदा एक-सी नहीं रहती, प्राणिमात्र मरणधर्मा है। वह एक शरीर नष्ट होते ही स्व-स्वकर्मानुसार आत्मा दूसरे मनुष्य, तिर्यंच, नरक आदि गतियों और योनियों रूप पर्यायों में पर्यटन करती रहती है, और एक पर्याय (अवस्था) से दूसरी पर्याय बदलने पर जन्म, जरा, मृत्यु, शारीरिक-मानसिक चिन्ता, सन्ताप आदि नाना प्रकार के दुःख भी भोगने पड़ते हैं, जो कि उन प्राणियों को अप्रिय हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि कोई भी व्यक्ति जब किसी भी प्राणी को सतायेगा, पीड़ा देगा, मारेगा-पीटेगा, डरायेगा या किसी भी प्राणी को हानि पहुँचायेगा, प्राणों से रहित कर देगा तो उसे दुःखानुभव होगा, इसलिए शास्त्रकार ने इन्हीं तीन मुख्य प्रत्यक्ष दृश्यमान स्थूल कारणों को प्रस्तुत करके बता दिया कि प्राणी सदैव एक-से नहीं रहते-उनमें पविर्तन होना प्रत्यक्षसिद्ध है / अतः किसी भी प्राणी की हिंसा न करो। 17. (क) तुलना कीजिए-सब्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सब्वे न हिंसया एयं खु गाणिणो सारं, जंन हिंसति कंचणं / अहिंसा समयं चेव एतावंतं विजाणिया / / --सूत्रकृ० 1 श्रु० अ० 11, गा० 6-10, सू० 505-6 (ख) "पकुधो कच्चायनो यं एतदवोच-सत्तिमे महाराज, काया अकटा, अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता, वज्झा कूटठा एसिकदायिठिता। तेन इञ्जन्ति, न विपरिणामेंन्ति, अञ्जमनं व्याबाधेति, नालं अञमञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा, सुखदुक्खाय वा / कतमे सत्त ? पठविकायो, आपोकायो, तेजोकायो, वायो. कायो, सुखे, दुक्खे, जीवे सत्तमे।" -सुत्तपिटके दीघनिकाय पालि भा० 1, सामअफलसुत्त (ग) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 51 के आधार पर (घ) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या 274-275 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org