Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 135 द्वितीय उद्देशक : गाथा 114 से 118 समताधर्भ उपदंश 114 सम अन्नयरम्मि संजमे, संसुद्ध समणे परिवए। जे आवक हा समाहिए, दविए कालमकासि पंडिए // 4 // 115 दूरं अणुपस्सिया मुणो, तीतं धम्ममणागयं तहा। पुढे फरसेहिं माहणे, अवि हण्णू समयंसि रोयति / / 5 / / 116 पण्णसमत्ते सदा जए, समिया धम्ममुदाहरे मुणी। सुहुमे उ सदा अलूसए, णो कुज्झे पो माणि माहणे // 6 // 117 बहुजणणमणम्मि संवुडे, सवठेहि गरे अणिस्सिते / हरए ब सया अणाविले, घम्म पादुरकासि कासवं // 7 // 118 बहबे पाणा पुढो सिया, पत्तेयं समयं उबेहिया। जे मोणपदं उठ्ठिते, विरति तत्थमकासि पंडिते // 8 // 114. सम्यक् प्रकार से शुद्ध श्रमण जीवनपर्यन्त (पाँच प्रकार के चारित्र संयम में से) किसी भी एक संयम (संयम स्थान) में स्थित होकर समभाव के साथ प्रब्रज्या का पालन करे। वह भव्य पण्डित ज्ञानादि समाधि से युक्त होकर मृत्यु काल तक संयम पालन करे। 115. मुनि (तीनों काल की गतिविधि पर मनन करने वाला) मोक्ष (दूर) को तथा जीवों को अतीत एवं अनागतकालीन धर्म-जीवों के स्वभाव को देखकर (जानकर) कटोर वाक्यों या लाठी आदि के द्वारा स्पर्श (प्रहार) किया जाता हुआ अथवा हनन किया (मारा) जाता हुआ भी समय में-(संयम में) विचरण करे। 116. प्रज्ञा में परिपूर्ण मुनि सदा (कषायों पर) विजय प्राप्त करे तथा समता धर्म का उपदेश दे। संयम का विराधक न हो / माहन (साधु) न तो क्रोध करे, न मान करे। 117. अनेक लोगों द्वारा नमस्करणीय-वन्दनीय अर्थात् धर्म में सावधान रहने वाला मुनि समस्त (बाह्याभ्यन्तर) पदार्थों या इन्द्रिय-विषयों में-अप्रतिबद्ध होकर ह्रद–सरोवर की तरह सदा अनाविल (निर्मल) रहता हआ काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर के धर्म-समता धर्म को प्रकाशित-प्रकट करे। 118. बहुत से प्राणी पृथक्-पृथक् इस जगत् में निवास करते हैं। अतः प्रत्येक प्राणी को समभाव से सम्यक् जान-देखकर जो मुनिपद संयम में उपस्थित-पण्डित साधक है, वह उन प्राणियों की हिंसा से विरति-निवृत्ति करे। विवेचन-समता-धर्म की आराधना के विविध पहल-प्रस्तुत पंचसूत्री (114 से 118 तक) में साधु को समता धर्म कहाँ-कहाँ, किस-किस अवसर पर कैसे-कैसे पालन करना चाहिए? इस पर सम्यग् प्रकाश डाला गया है / जो सरल सुबोध है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org