Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 138 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय इसी प्रकार माता-पिता आदि स्वजनों के प्रति ममत्व (परिग्रह) भी दुःखदायी है, क्योंकि रोग, कष्ट, निर्धनता, आफत आदि के समय स्वजनों से लगाई हुई सहायता, तथा मोत, संकट आदि के समय सुरक्षा की आशा प्रायः सफल नहीं होती, क्योंकि संसार में प्रायः स्वार्थ का बोलबाला है। स्वार्थपूर्ति न होने पर स्वजन प्रायः छोड़ देते हैं। परलोक में भी परिग्रही दुःखदायो-इहलोक में इष्ट पदार्थों पर किये गये राग के कारण जो कर्मबन्धन हुआ, उसके फलस्वरूप परलोक में भी नाना दुःख भोगने पड़ते हैं। उन दुःखों को भोगते समय फिर शोक, चिन्ता या विषाद के वश नये कर्मनन्धन होते हैं, फिर दुःख पाता है, इस प्रकार दुःखपरम्परा बढ़ती जाती है। गृहवास : परिग्रह भण्डार होने से गृहपाश हैं-शास्त्रकार ने स्पष्ट कह दिया-इति विज्जा कोऽगारमावसे ?-आशय यह है कि परिग्रह को उभयलोक दुःखद एवं विनाशवान जानकर कौन विज्ञ परिग्रह के भण्डार गृहस्थ में आवास करेगा ? कौन उस गृहपाश में फंसेगा? अतिपरिचय-त्याग-उपदेश---- 121 महयं पलिगोव जाणिया, जा वि य वंदण-पूयणा इहं। सुहमे सल्ले दुरुधरे, विदुमं ता पयहेज्ज संथवं / / 11 // 121. (सांसारिकजनों का) अतिपरिचय (अतिसंसर्ग) महान् पंक (परिगोप) है, यह जानकर तथा (अतिसंसर्ग के कारण प्रबजित को राजा आदि द्वारा) जो वंदना और पूजा (मिलती) है उसे भी इस लोक में या जिन-शासन में स्थित विद्वान् मुनि (वन्दन-पूजन को) गर्वरूप सूक्ष्म एवं कठिनता से निकाला जा सकने वाला शल्य (तीर) जानकर उस (गर्वोत्पादक) संस्तव (सांसारिकजनों के अतिपरिचय) का परित्याग करे। विवेचन-अतिपरिचय : कितना सुहावना, कितना भयावना ? प्रस्तुत सूत्र में सांसारिक जनों के अतिपरिचय के गुण-दोषों का लेखा-जोखा दिया गया है। सांसारिक लोगों के अतिपरिचय को शास्त्रकार ने तीन कारणों से त्याज्य बताया है-(१) गाढ़ा कीचड़ है, (2) साधु को वन्दना-पूजा मिलती है, उसके कारण साधु-जीवन में गर्व (ऋद्धि, रस और साता रूप गौरव) का तीखा और बारीक तीर गहरा घुस जाता है कि उसे फिर निकालना अत्यन्त कठिन होता है यद्यपि अपरिपक्व साधु को धनिकों और शासकों आदि का गाढ़ संसर्ग बहुत मीठा और सुहावना लगता है, अपने भक्त-भक्ताओं के अतिपरिचय के प्रवाह में साधु अपने ज्ञान-ध्यान, तप-संयम और साधु-जीवन की दैनिकचर्या से विमुख होने लगता है, भक्तों द्वारा की जाने वाली प्रशंसा और प्रसिद्धि, भक्ति और पूजा से साधु के मन में मोह, अहंकार और राग घुस जाता है, जो भयंकर कर्मबन्ध का कारण है। इसीलिए इसे गाढ़ कोचड़ एवं सूक्ष्म तथा दुरुद्धर शल्य की उपमा दी है / अतः साधु अतिपरिचय को साधना में भयंकर विघ्नकारक समझकर प्रारम्भ में ही इसका त्याग करे / यह इस गाथा का आशय है।' 1 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 63 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 337 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org