Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय उद्दशक : माया 122 से 128 143 एकचर्या से लाभ के बदले हानि ही अधिक उठानी पड़ सकती है / 15 चित्त समाधि युक्त साधक की इस प्रकार की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी हो सकती है। इसलिए इन सूत्रगाथाओं में एकचारी साधक में 12 विशिष्ट गुणों का होना अनिवार्य बताया है (1) वह समाधियुक्त हो, (2) वचनगुप्ति (मौन या विवेकपूर्वक अल्प भाषण) से युक्त हो, (3) मन को भी राग-द्वेष-कषायोत्पादक विचारों से रोककर (संवृत-गुप्त) रखे, (4) बाह्य एवं आभ्यन्तर तप करने में शक्तिशाली (पराक्रमी) हो, (5) भिक्षणशील हो, (6) जीने की आकांक्षा (प्राणों का मोह) न हो, (7) पूजा-प्रतिष्ठा की चाह न हो, (8) सभी प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहने में सक्षम हो, (8) भय से रोमांच या अंग विकार न हो, (10) अपनी आत्मा में परीषहोपसर्ग जनित भय का भूत खड़ा न करे और (11) श्रुत-चारित्रधर्म या मुनिधर्म में स्थिर रहे तथा (12) असंयम के कार्य करने में लज्जित हो। इसके अतिरिक्त एकचारी साधु के लिए अहिंसादि की दृष्टि से कुछ कठोरचर्याओं का भी निर्देश किया है (1) शून्यगृह का द्वार म खोले, न बंद करे-- वर्षों से बिना सफाई किये पड़े हुए जन शून्य मकान में जाले जम जाते हैं, मकड़ी आदि कई जीव आकर बसेरा कर लेते हैं, चिड़िया-कबूतर आदि पक्षी भी, छिपकली आदि भी वहाँ अपना घोंसला बना लेते हैं, अण्डे दे देते हैं, साँप विच्छू आदि विषले जन्तु भी वहाँ अपना डेरा जमा लेते हैं / कीड़े वहाँ रेंगते रहते हैं। इसलिए साधु वर्षा, सर्दी या गर्मी का परीषह सह ले, किन्तु उसके द्वार को न तो खोले, न बन्द करे, यह निर्देश किया गया है। (2) न सफाई करे, न घास बिछाए-साथ ही उस दीर्घकाल से सूने पड़े हुए मकान की सफाई (प्रमार्जन) करने और घास बिछाने का निषेध इसलिए किया गया है कि वहाँ रहने वाले जीव-जन्तुओं की इससे विराधना होगी। (3) पूछने पर बोलते नहीं-साधु को कायोत्सर्ग में सूने घर में खड़े देख बहुत से लोग उस पर चोर, डाकू, गुप्तचर, लुटेरा या अन्य अपराधी होने का सन्देह कर बैठते हैं, और उससे पूछते हैं-"कौन है ? कहाँ से आया है ?" इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं-पुट्ठण उदाहरे वयं / प्रश्न होता है-बिलकुल न बोलने पर लोग कदाचित् कुपित होकर मारें-पीटें, सताएँ, उस समय समभावपूर्वक सहन करने की शक्ति न हो तो मुनि क्या करें? यहाँ वृत्तिकार अभिग्रहधारी या जिनकल्पिक साधु के लिए तो निरवद्यवचन भी बोलने का निषेध करते हैं, किन्तु स्थविरकल्पी गच्छगत साधु के लिए व कहते हैं- "शून्य 15 (क) देखिये दशाश्रुतम्कन्ध में 20 असमाधिस्थान ।–दशाश्रुतस्कन्ध सू० 1-2 (ख) “चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता-तंजहा विणयसमाही, सुयसमाही, तवसमाही, आयारसमाही।" -दशव० अ०६, 3-4 (ग) .."इमाई दस चित्तसमाहिठाणाई असमुप्पण्णपुवाई समुपज्जेज्जा (1) धम्मचिंता"(२) सण्णिजाइस रणेणं "(3) सुमिणदसणे" (4) देवदसणे. (5). "ओहिणाणे... (6) ओहिदसणे"(७) मणपज्जवणाणे".. (8) केवलणाणे"""(६) केवलदसणे", (10) केवलमरणे वा।" -दशा० श्रु० दशा 5 सू० 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org