Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 154 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय संपसारए-वृत्तिकार के अनुसार-वर्षा आदि के लिए आरम्भजनक या आरम्भोत्तेजक कथाविस्तारक सम्प्रसारक है / आचारांग चूणि के अनुसार-सम्प्रसारक का अर्थ मिथ्या सम्मति देने वाला है। वास्तव में सम्प्रसारक वह है, जो वर्षा, धन-प्राप्ति, रोग-निवारण आदि के लिए आरम्भ-समारम्भजनक उपाय बताये / आचारांगवृत्ति में सम्प्रसारण का अर्थ किया गया है--स्त्रियों के सम्बन्ध में एकान्त में पर्यालोचन करना। मामए-वृत्तिकार के अनुसार- 'यह मेरा है', मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार का परिग्रहाग्रही मामक है / आचारांग चुणि के अनुसार-गृहस्थ के घर में जाकर जो यह कहता है कि मेरी पत्नी ऐसी थी, मेरी भौजाई या मेरी बहन ऐसी थी, इस प्रकार जो मेरी-मेरी करता है, वह मामक है।' इस प्रकार ममत्व करने से उसके वियोग में या न मिलने पर दुःख होगा, उसकी रक्षा की चिन्ता बढ़ेगी, उसके चुराये जाने या नष्ट होने पर भी आत ध्यान होगा। ऐसा साधु व्यर्थ की आफत मोल ले लेता है। ____ कयकिरिए-वृत्तिकार के अनुसार-जिसने अच्छी तरह संयमानुष्ठान रूप क्रिया की है, वह कृत. क्रिय है / परन्तु चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है जो दूसरों के द्वारा किये हुए कर्म के विषय में पूछने या न पूछने पर अच्छा या बुरा बताता है, वह कृतक्रिय है / आचारांगवृत्ति के अनुसार इसका अर्थ हैजिसने शृगारादि या मण्डनादि क्रिया की है, वह कृतक्रिय है।२६ छण्ण=छन्न का अर्थ है गुप्त क्योंकि उसमें अपने अभिप्राय को छिपाया जाता है। संस= जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं, जिसे आदर देते हैं, उसे प्रशंसा यानी लोभ कहते हैं। उक्कोस = जो नीच प्रकृति वाले व्यक्ति को जाति आदि मदस्थानों द्वारा मदमत्त बना देता है, उसे उत्कर्ष–मान कहते हैं / पगासं जो अन्तर में स्थित होते हुए भी मुख आदि के विकारों से प्रकट हो जाता है, उसे प्रकाशक्रोध कहते हैं / तेसि सुविवेगमाहिते-इसके दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं--(१) उन कषायों का सम्यक् विवेक परित्याग आहित-उत्पन्न किया है, अथवा (2) उन्हीं सत्पुरुषों का सुविवेक प्रसिद्ध हुआ है। जेहिं सुझोसितं धुयं जिससे कर्मों का धूनन-क्षपण किया जाए, उसे धुत कहते हैं, वह है-ज्ञानादिरत्नत्रय या संयम अथवा ज्ञानादि या संयम जिनके द्वारा भलीभाँति से वित-अभ्यस्त हैं, उन्हें सुजोषितं' कहते हैं / सहिए के भी संस्कृत में तीन अर्थ होते है-(१) जो हित सहित हो, वह सहित है, (2) ज्ञानादि से युक्त-सहित, (3) 'सहिए' का संस्कृत रूप= स्वहित मानने पर अर्थ होता है जो सदनुष्ठान के कारण आत्मा का हितैषी हो / " महंतर=सब धर्मों से महान् अन्तर रखने वाले धर्म-विशेष को अथवा कर्म के अन्तर को। 26 देखिए टिप्पण 28; पृष्ठ 153 पर 30 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पन्नांक 66 (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ 25 31 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 69-70 - "सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो यूक्तो वा ज्ञानादिभिः, स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठान प्रवृत्त: / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org