Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 86 से 18 (चलने-फिरने), आसन (बैठने) और शय्या (सोने) के विषय में और अन्ततः आहार-पानो के सम्बन्ध में (सदा उपयोग रखे / ) 87 इन (पूर्वोक्त) तीनों (इर्यासमिति, आदान-निक्षेपणसमिति और एषणासमिति रूप) स्थानों में सतत संयत (संयमरत) मुनि मान (उत्कर्ष), क्रोध (ज्वलन), माया (णूम) और लोभ (मध्यस्थ) का परिहार (विवेकपूर्वक त्याग) करे। 88. भिक्षाशोल साधु सदा पंच समितियों से युक्त (होकर) पाँच संवर (अहिंसादि) से आत्मा को आस्रवों से रोकता (सुरक्षित रखता हुआ) गृहपाश-(गृहस्थ के बन्धन में) बद्ध-श्रित गृहस्थों में न बँधता (मूर्छा न रखता) हुआ मोक्ष प्राप्त होने तक सब ओर से संयम (परिव्रज्या) में उद्यम करे। (श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-) इस प्रकार मैं कहता हूँ। विवेचन-चारित्र शुद्धि के लिए उपदेश-प्रस्तुत त्रिसूत्री में कर्मबन्धनों को तोड़ने के लिए चारित्रशुद्धि का उपदेश दिया गया है / वास्तव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र (चारित्र के अन्तर्गत तप) यह रत्नत्रय मिलकर मोक्षमार्ग कर्मबन्धनों से छुटकारे का एकमात्र साधन है। मोक्षरूप शुद्ध साध्य के लिए पिछली गाथाओं में पर्याप्त चर्चा की गयी है / शुद्ध साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों (रत्नत्रय) की शुद्धि पर ध्यान देना आवश्यक है / इसी दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की शुद्धि के हेतु पिछली अनेक गाथाओं में शास्त्रकार ने सुन्दर ढंग से निर्देश किया है / बाकी रही चारित्र-शुद्धि / अतः पिछली दो अहिंसा निर्देशक गाथाओं के अतिरिक्त अब यहाँ तीन गाथाओं में चारित्र-शुद्धि पर जोर दिया है। हिंसा आदि पाँच आस्रवों से अविरति, प्रमाद, कषाय और मन-वचन-काया-योग का दुरुपयोग, ये सब चारित्र-दोष के कारण हैं, और कर्मबन्धन के भी मुख्य कारण हैं। चारित्रशुद्धि से ही आत्मशुद्धि (निर्जरा या कर्मक्षय, कर्मास्रव-निरोध) होती है / तत्त्वार्थसूत्रकार ने आत्म शुद्धि (निर्जरा) के लिए समिति, गुप्ति, दशविध धर्म, अनुप्रक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप की आराधना-साधना बतायी है। इसी प्रकार चारित्रशुद्धि के परिप्रेक्ष्य में शास्त्रकार ने प्रस्तुत तीन गाथाओं में 10 विवेकसूत्र बताये हैं (1) दस प्रकार की समाचारी में स्थित रहे। (2) आहार आदि में गृद्धि-आसक्ति न रखे। (3) अप्रमत्त होकर अपनी आत्मा का या रत्नत्रय का संरक्षण करे। (4) गमनागमन, आसन, शयन, खान-पान (भाषण एवं परिष्ठापन) में विवेक रखे। (5) पूर्वोक्त तीन स्थानों (समितियों) अथवा इनके मन-वचन-काया गुप्ति रूप तीन स्थान में मुनि सतत संयत रहे। (6) क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चार कषायों का परित्याग करे। (7) सदा पंच समिति से युक्त अथवा सदा समभाव में प्रवृत्त होकर रहे। (8) प्राणातिपातादि-विरमण रूप पंच महाव्रत रूप संवरों से युक्त रहे। (6) भिक्षाशील साधु गार्हस्थ्य बन्धनों से बँधे हुए गृहस्थों से आसक्तिपूर्वक बँधा हुआ न रहे। (10) मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में प्रगति करे-डटा रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org