Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 120 सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय करते हैं-माया का अर्थ है--जहाँ निदश (कथन) अनिर्दिष्ट-अप्रकट रखा जाता है। उन माया प्रमुख कषायों से यदि वह साधक भरा (युक्त) है तो। पाप-विरति-उपदेश 18. पुरिसोरम पावकम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं / सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जंति नरा असंवुडा // 10 // 66. जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा। अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं सम्म पवेदियं // 11 / / 100. विरया वोरा समुठ्ठिया, कोहाकातरियादिपोसणा। पाणे ण हणंति सम्वसो, पावातो विरयाऽभिनिव्वुडा // 12 // 18. हे पुरुष ! पापकर्म से उपरत-निवृत्त हो जा। मनुष्यों का जीवन सान्त-नाशवान् है / जो मानव इस मनुष्य जन्म में या इस संसार में आसक्त हैं, तथा विषय-भोगों में मूच्छित-गृद्ध हैं, और हिंसा, झूठ आदि पापों से निवृत्त नहीं हैं, वे मोह को प्राप्त होते हैं, अथवा मोहकर्म का संचय करते हैं। ___RE. (हे पुरुष !) तू यतना (यत्न) करता हुआ, पांच समिति और तीन गुप्ति से युक्त होकर विचरण कर, क्योंकि सूक्ष्म प्राणियों से युक्त मार्ग को (उपयोग यतना के बिना) पार करना दुष्करदुस्तर है। अतः शासन-जिन प्रवचन के अनुरूप (शास्त्रोक्त विधि के अनुसार) (संयम मार्ग में) नुष्ठान) करो। सभी रागद्वेष विजेता वीर अरिहन्तों ने सम्यक् प्रकार से यही बताया है। 100. जो (हिंसा आदि पापों से) विरत हैं, जो (कर्मों को विदारण-विनष्ट करने में) वीर है, (गृह-आरम्भ-परिग्रह आदि का त्याग कर संयम पालन में) समुत्थित- उद्यत है, जो क्रोध और माया आदि कषायों तथा परिग्रहों को दूर करने वाले हैं, जो सर्वथा (मन-वचन-काया से) प्राणियों का घात नहीं करते, तथा जो पाप से निवृत्त हैं, वे पुरुष (क्रोधादि शान्त हो जाने से मुक्त जीव के समान) शान्त हैं। विवेचन-पापकर्म से विरत होने का उपदेश-प्रस्तुत त्रिसूत्री में साधु-जीवन में पापकर्म से दूर रहने का परम्परागत उपदेश विविध पहलुओं से दिया गया है। इनमें पापकर्म से निवृत्ति के लिए निम्नोक्त बोधसूत्र है (1) जीवन नाशवान् है, इसलिए विविध पापकर्मों से दूर रहो। (2) विषयासक्त मनुष्य हिंसादि पापों में पड़कर मोहमूढ़ बनते हैं। 15 (क) सूत्रकृतांक शीलांकवृत्ति पन 57, (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मू० पा. टि०) पृ. 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org