Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय निष्कर्ष यह है-इस प्रकार की समता का जीवन में आ जाना ही अहिंसा है। इसी समता सूत्र से अहिंसा आदि का आचरण होता है / यही अहिंसा का सिद्धान्त है। इसे भलीभाँति हृदयंगम कर लेना ही ज्ञानी होने का सार है / अगर पुरुष इतना भी न कर सकता, तो उनका ज्ञान निरर्थक ही नहीं, भारभूत है, परिग्रह रूप है / एक आचार्य ने कहा है कि 'भूसे के ढेर के समान उन करोड़ों पदों के पढ़ने से क्या लाभ, जिनसे इतना भी ज्ञान न हुआ कि दूसरों को पीड़ा नहीं देनी चाहिए।२१।। इस समग्र गाथा का निष्कर्ष यह है कि ज्ञानी पुरुष के लिए यही न्यायोचित है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, “आत्मवत् सर्वभूतेषु" का भाव रखकर अहिंसा का आचरण करे / कठिन शब्दों की व्याख्या-- उरालं =उदार, स्थूल है, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है, आँखों से प्रत्यक्ष दृश्यमान है। जोग= प्राणियों के योग-व्यापार, चेष्टा या अवस्था विशेष को। विवज्जासं पलिति औदारिक शरीरधारी जीव गर्भ, कलल और अर्बुदरूप पूर्वावस्था छोड़कर उससे विपरीत बाल्य-कौमार्य-यौवन-वृद्धत्व आदि स्थूल पर्यायों (अवस्था विशेषों) को प्राप्त करते हैं। अक्कंतदुक्खा=असातावेदनीय के उदय से, शारीरिकमानसिक दुःखों से आक्रान्त-पीड़ित हैं। चूर्णिकार 'अकंतदुक्खा' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं--कान्त का अर्थ है-प्रिय / जिन्हें दुःख अकान्त-अप्रिय अनिष्ट है / 25 हिसिया=सभी प्राणी साधु के लिए अहिंसनीय-अवध्य हैं। चूर्णिकार 'अहिंसगा' पाठान्तर मान कर अर्थ करते हैं- इस कारण से साधु अहिंसक होते हैं / सार=न्याय-संगत या निष्कर्ष / 23 चारित्न शुद्धि के लिए उपदेश 86. बुसिए य विगयगेही य आयाणं संरक्खए। चरियाऽऽसण-सेज्जासु भत्तपाणे य अंतसो // 11 // 87. एतेहिं तिहि ठाणेहिं संजते सततं मुणी / उक्कसं जलणं णूम मज्झत्थं च विगिचए // 12 // 88. समिते उ सदा साह पंचसंवरसंखुडे / ___ सितेहिं असिते भिक्खू आमोक्खाए परिवएज्जासि / / 13 / / त्ति बेमि 86. दस प्रकार की साधु समाचारी में स्थित और आहार आदि में गृद्धि (आसक्ति) रहित साधु (मोक्ष प्राप्ति के) आदान (साधन-ज्ञानदर्शन-चारित्र) की सम्यक् प्रकार से रक्षा करे। (तथा) चर्या 21 किं तया पठितया पदकोट्या पलालभूतया। येनेतन्न ज्ञातं परस्य पीडा न कर्तव्या // 22 "कान्तं प्रियमित्यर्थः, न कान्तमकान्त दुक्खं अणिळं-अकंतदुक्खा" 23 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 51 (ख) सूयगडंग चूर्णि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 15 -चूणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org