Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ शितीय उद्देशक : गाया 51 से 56 वृत्तिकार कृत व्याख्या इस प्रकार है-पुत्र-अपत्य को पिता-जनक समारम्भ करके यानी आहारार्थ मारकर कोई तथाविध विपत्ति आ पड़ने पर उसे पार करने के लिए राग-द्वेष रहित असंयत गृहस्थ उरल मांस को खाता हुआ भी, तथा मेधावी-संयमी भिक्षु भी (यानी वह शुद्धाशय गृहस्थ एवं भिक्षु दोनों). उस मांसाहार का सेवन करते हुए भी पाप कर्म से लिप्त नहीं होते। ___ इस सम्बन्ध में एक बौद्ध कथा भी है, जिसे तथागत बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को खानपान का उद्देश्य समझाने के लिए कही थी। उसका सार यह है-'पिता, पत्र एवं माता तीनों गहन वन में से थे, तीनों को अत्यन्त भूख लगी, पास में कुछ भी न था। शरीर में इतनी अशक्ति आ गयी कि एक डम भी चला नहीं जा रहा था / अतः पुत्र ने अपना मांस-भक्षण करके परिवार को जीवित रखने की पिता से प्रार्थना की / वैसा ही किया गया और उस पुत्र के माता-पिता ने उस अरण्य को पार किया / तथागत के यह पूछने पर कि क्या पिता ने अपने पुत्र का मांस स्वाद, शक्तिवृद्धि, बल-संचय अथवा शारीरिक रूप-लावण्य वृद्धि के लिए खाया था ? सबने कहा - 'नहीं।' इस पर तथागत ने कहा-"भिक्षुओ तुमने घरबार छोड़ा है, संसाराटवी को पार करने के हेतु भिक्षुब्रत लिया है, संसार रूपी भीषण वा पार करके तुम्हें निर्वाण लाभ करना है, अतः तुम भी इसी उद्देश्य से परिमित, धर्म-प्राप्त, यथाकाल-प्राप्त भोजन-पान लेते रहो, न मिले तो सन्तोष करो। किन्तु स्वाद, बलवृद्धि, शक्ति-संचय या रूप-लावण्यवृद्धि आदि दृष्टियों से खान-पान लोगे तो भिक्षु-धर्म से च्युत हो जाओगे और मोघ (पिण्डोलक) भिक्षु हो जाओगे / 25 सम्भव है, इस गाथा का वास्तविक आशय (भोजन में अनासक्ति) विस्मृत हो गया हो, और इस कथा का उपयोग बौद्ध गृहस्थ एवं भिक्षु दोनों मांस-भक्षण के समर्थन में करने लग गये हों। जो भी हो, बालोवाद जातक में उल्लिखित बुद्ध वचन के अनुसार राग-द्वेष रहित होकर शुसाशय से पुत्रवध करके उसका मांस खाने वाले पिता को तथा भिक्षुओं को कर्मोपचय नहीं होता, यह सिद्धान्त इस गाथा में बताया गया है। कर्मोपचय निषेधवाद का निराकरण-पूर्वोक्त पाँच गाथाओं में कर्मोपचय निषेध के सम्बन्ध में जो भी युक्ति, हेतु एवं दृष्टान्त दिये गये हैं, उन सबका निराकरण इस 56 वीं सूत्र गाथा द्वारा किया गया है 24 (क) पुत्तं पिता इत्यादि / पुत्रमपत्यं, पिता जनकः समारभ्य व्यापाद्य आहारार्थ कस्यां चित् तथा विधायामापदि तदुद्धरणार्थमरक्ताद्विष्ट: असंयतो गृहस्थः तत्पिशितं भुजानोऽपि, च शब्दस्यापि शब्दार्थत्वात् / तथा मेधा व्यपि संयतोपीत्यर्थः, तदेव गृहस्थो भिक्षा शुद्धाशयः पिशिताश्यपि कर्मपापेन नोपलिप्यते, नाशिलस्यते।" -सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक 36 (ख) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० 1 पृ० 134-135 25 (क) सुत्तपिटके संयुत्तनिकाय पालि भा०२ पुत्तमंससुत्त पृ० 84 (ख) तुलना करो-ज्ञातासूत्र प्रथम अध्ययन धन्ना सार्थवाह एवं उसके पूत्रों द्वारा मत-पूत्री मांस विषयक प्रसंग (ग) बौद्ध भिक्ष ओं की मांसभक्षण निदोषिता का वर्णन सूत्रकृतांग द्वितीय तस्कन्ध गाथा 512 से 816 तथा 823-824 गाथाओ में मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org