Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तुतीय उद्देशक : गाथा 63 से 66 हुए। ध्यान करके अपने शरीर से विविध प्रजाओं की सृष्टि की। उसने सर्वप्रथम पानी बनाया, फिर उसमें बीज उत्पन्न किया।"१७ __ मार द्वारा रचित माया: संसार प्रलयकर्ता मार-इसके पश्चात शास्त्रकार ने कहा है-मारेण संता मापा, तेण लोए असासए अर्थात् मार ने माया की रचना की। इस कारण यह जगत् अशाश्वत-अनित्य है। मार के दो अर्थ यहाँ किये गये हैं.-वृत्तिकार ने अर्थ इस प्रकार किया है कि जो मारता है, नष्ट करता है, वह मार-मृत्यु या यमराज / पौराणिक कहते हैं-स्वयम्भू ने लोक को उत्पन्न करके अत्यन्त भार के भय से जगत् को मारने वाला मार यानी मृत्यु-यमराज बनाया। मार (यम) ने माया रची, उस माया से प्राणी मरते हैं।" मार का अर्थ चूर्णिकार विष्णु करते हैं। वे नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर के रूप में एक नई गाथा उद्धत करते हैं "अतिवडीयजीवाणं मही विष्णवते प{। ततो से मायासंजत्ते करे लोगस्सऽभिवा / / " अर्थात् पृथ्वी अपने पर जीवों का भार अत्यधिक बढ़ जाने के कारण प्रभु (विष्णु) से विनती करती है। इस पर उस प्रभु ने लोक का विनाश (संहार) करने के लिए उसे (लोक को) माया से युक्त बनाया। वैदिक ग्रन्थों में एक प्रसिद्ध उक्ति है "विष्णोर्माया भगवती, यया सम्मोहितं जगत् / " विष्णु की माया भगवती है, जिसने सारे जगत् को सम्मोहित कर दिया है / कठोपनिषद् में उस स्वयम्भू की माया के सम्बन्ध में कहा गया है--ब्राह्मण और क्षत्रिय जिसके लिए भात (भोजने) है, मृत्यु जिसके लिए व्यंजन (शाकभाजी) के समान है, उस विष्णु (स्वयम्भू) को कौन यहाँ जानता है जहाँ वह है ?" जो भी हो मृत्यु या विनाश प्रत्येक सजीव-निर्जीव पदार्थ के साथ लगा हुआ है, इसी कारण लोक का अनित्य विनाशशील होना स्वाभाविक है / मृत्यु की महिमा बताते हुए बृहदारण्यक में कहा है- “यहाँ पहले कुछ भी नहीं था। मृत्यु से ही यह (सारा जगत्) आवृत्त था / वह मृत्यु सारे जगत् को निगल जाने के लिए थी..."१६ आसीदिदं तमोभूत""मलक्षणम् / अप्रतय....."प्रसुप्तमिव सर्वतः // 5 // तत: स्वयम्भूभगवान् अव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् / महाभूतादि वृत्तीजाः प्रादुरासीत् तमोनुदः // 6 // योऽसावतीन्द्रियग्राह्यः सूक्ष्मोऽव्यक्तः सनातनः / सर्वभूतमयोऽचिन्त्यः स एव स्वयमुदबभौ // 7 // सोऽभिध्याय शरीरात स्वात् सिसक्षविविधाः प्रजाः / अप एव ससर्जादौ तासु बीजमिवासृजत् // 8 // -मनुस्मृति अध्याय 1 18 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 42-43 (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) पृ० 11 16 (क) यस्य ब्रह्म च क्षत्र चोभे भवत ओदनः / मृत्युःर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः / -कठोपनिषद् 1 वल्ली 2 / 24 (ख) नेवह किंचनान आसीन् मृत्युनैवेदमावृतमासीत्। --बृहदारण्यक० ब्राह्मण 201 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org