Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय उद्देशक : गाया 64 से 66 65. जीव और अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से समन्वित (सहित) यह लोक ईश्वर के द्वारा कृत-रचित है (ऐसा कई कहते हैं) तथा दूसरे (सांख्य) कहते हैं कि (यह लोक) प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा कृत हैं। 66. स्वयम्भू (विष्णु या किसी अन्य) ने इस लोक को बनाया है, ऐसा हमारे महर्षि ने कहा है। यमराज ने यह माया रची है, इसी कारण यह लोक अशाश्वत-अनित्य (परिवर्तनशील) है ! 67. कई माहन ब्राह्मण) और श्रमण जगत् को अण्डे के द्वारा कृत कहते हैं तथा (वे कहते हैं)ब्रह्मा ने तत्त्व (पदार्थ-समूह) को बनाया है। वस्तुतत्त्व को न जानने वाले ये (अज्ञानी) मिथ्या ही ऐसा कहते हैं। 68. (पूर्वोक्त अन्य दर्शनी) अपने-अपने अभिप्राय से इस लोक को कृत (किया हुआ) बतलाते हैं। (वास्तव में) वे (सब अन्यदर्शनी) वस्तुतत्त्व को नहीं जानते, क्योंकि यह लोक कभी भी विनाशी नहीं है। ___66. दुःख अमनोज्ञ (अशुभ) अनुष्ठान से उत्पन्न होता है, यह जान लेना चाहिए / दुःख की उत्पत्ति का कारण न जानने वाले लोग दुःख को रोकने (संकट) का उपाय कैसे जान सकते हैं ? विवेचन-लोक कर्तृत्ववाद : विभिन्न मतवादियों की दृष्टि में-गाथा 64 से 66 तक शास्त्रकार ने इसे अज्ञानवादियों का दूसरा अज्ञान बताकर लोक-रचना के सम्बन्ध में उनके विभिन्न मतों को प्रदर्शित किया है। इन सब मतों के बीज उपनिषदों, पुराणों एवं स्मृतियों तथा सांख्यादि दर्शनों में मिलते हैं / यहाँ शास्त्रकार ने लोक रचना के विषय में मुख्य 7 प्रचलित मत प्रदर्शित किये हैं (1) यह किसी देव द्वारा कृत है, गुप्त (रक्षित) है, उप्त (बोया हुआ) है। (2) ब्रह्मा द्वारा रचित है, रक्षित है या उत्पन्न किया गया है। (3) ईश्वर द्वारा यह सृष्टि रची हुई है। (4) प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा लोक कृत है। (5) स्वयम्भू (विष्णु या अन्य किसी के) द्वारा यह लोक बनाया हुआ है / (6) यमराज (मार या मृत्यु) ने यह माया बनायी है, इसलिए लोक अनित्य है। (7) यह लोक अण्डे से उत्पन्न हुआ है। (1) देवकृत लोक-वैदिक युग में मनुष्यों का एक वर्ग अग्नि, वायु, जल, आकाश, विद्युत, दिशा आदि शक्तिशाली प्राकृतिक तत्त्वों का उपासक था प्रकृति को ही देव मानता था। मनुष्य में इतनी शक्ति कहां, जो इतने विशाल ब्रह्माण्ड की रचना कर सके, देव ही शक्तिशाली है / इस धारणा से देवकृत लोक की कल्पना प्रचलित हुई / इसलिए कहा गया-देवउत्ते। इसके संस्कृत में तीन रूप हो सकते हैं-देव -उप्त, देवगुप्त और देवपुत्र / 'देव-उप्त' का अर्थ है-देव के द्वारा बीज की तरह बोया गया। किसी देव ने अपना बीज (वीर्य) किसी स्त्री में बोया (डाला) और उससे मनुष्य तथा दूसरे प्राणी हुए / प्रकृति की सब वस्तुएं हुईं। ऐतरेयोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् आदि में इसके प्रमाण मिलते हैं। देवगुप्त का अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org