Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रहतांग-प्रथम अध्ययन-समय 27. ज्ञातपुत्र जिनोत्तम श्री महावीर स्वामी ने यह कहा है कि वे (पूर्वोक्त अफलवादी अन्यतीर्थी) उच्च-नीच गतियों में भ्रमण करते हुए अनन्त बार (माता के) गर्भ में आएंगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-अन्य वर्शनियों का अपना-अपना मताग्रह-१९वीं गाथा में शास्त्रकार ने अन्य मतवादियों के द्वारा लोगों को अपने मत-पंथ की ओर खींचने की मनोवृत्ति का नमूना दिखाया है-वे सभी मतवादी यही कहते हैं-चाहे तुम गृहस्थ हो, चाहे आरण्यक या पर्वतीय तापस या योगी हो, चाहे प्रवृजित हो, हमारे माने हुए या प्रवर्तित दर्शन या वाद को स्वीकार कर लोगे तो समस्त शारीरिक, मानसिक या आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों से मुक्त हो जाओगे, अथवा जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, गर्भावास आदि के दुःखों से छुटकारा पा जाओगे / अथवा कठोर तप करके अपने शरीर को सुखा देना, संयम और त्याग की कठोरचर्या अपनाना, शिरोमुण्डन, केशलुञ्चन, पैदल विचरण, नग्न रहना या सीमित वस्त्र रखकर सर्दी-गर्मी आदि परीषह सहना, जटा, मृगचर्म, दण्ड, काषायवस्त्र आदि धारण करना ये सब शारीरिक क्लेश दुःखरूप हैं, हमारा दर्शन या मत स्वीकार करने पर इन शारीरिक कष्टों से छुटकारा मिल जाएगा। गार्हस्थ्य-प्रपंचों में रचे-पचे रहते हुए हिंसा, झूठ, चोरी आदि दोषों से सर्वथा मुक्त न हो सकने वाले व्यक्ति को भी ये सभी दार्शनिक कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए हिंसादि आस्रवों, मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय आदि का त्याग या यथाशक्ति तप, व्रत, नियम, संयम करने के बदले सिर्फ अपने मत या दर्शन को स्वीकार करने का सस्ता, सरल और सीधा मार्ग बतला देते थे।। वनवासी तापस, पर्वतनिवासी योगी या परिव्राजक, जो परिवार, समाज और राष्ट्र के दायित्वों से हटकर एकान्त साधना करते थे, या उन्हें नैतिक, धार्मिक मार्गदर्शन देने से दूर रहते थे, उनके लिए भी वे दार्शनिक यही कहते थे कि हमारे दर्शन का स्वीकार करने से झटपट मुक्ति हो जाएगी, इसमें तुम्हें कुछ त्याग, तप आदि करने की जरूरत नहीं। दूसरों को आकर्षण करने की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए कहा है तपांसि यातनाश्चित्राः, संयमो मोगवञ्चनम् / अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रोड के लक्ष्यते // -विविध प्रकार के तप करना शरीर को व्यर्थ यातना देना है, संयम धारण करना अपने आपको भोग से वंचित करना है, और अग्निहोत्र आदि कर्म तो बच्चों के खेल-के समान मालूम होते हैं। 66 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 28 (ख) सूत्रकृतांग अमर सुखबोधिनी व्याख्या पृ० 125 के अनुसार (ग) 'पव्वर' के बदले कहीं-कहीं 'पवइया' पाठान्तर है, उसका अर्थ होता है,-'प्रजिताः' प्रव्रज्या धारण किये हए। पव्वया के दो अर्थ किये गए हैं-पव्वया=प्रबजिताः, प्रव्रज्या धारण किये हुए, अथवा पव्वया= पार्वता:-पर्वत में रहने वाले। -सूत्रकृ० समयार्थबोधिनी टीका पृ० 232 67 (क) सूत्रकृतांग शीलांक दृत्ति पत्रांक 28 के आधार पर (ब) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 126 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org