Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 28 से 32 45 तप या ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व कर लूँगा, परिपक्व कर्म को भोगकर अन्त करूंगा। सुख और दुःख तो द्रोण (माप) से नपे-तुले (नियत) हैं, संसार में न्यूनाधिक या उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं है। जैसे सूल की गोली फेकने पर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूर्ख और पण्डित दौड़कर आवागमन में पड़कर दुःख का अन्त करेंगे। संगतिअंत-शास्त्रकार नियतिवाद या नियति का सीधा नाम न लेकर इसे सांगतिक (सांतियं) बताते हैं / वृत्तिकार के अनुसार 'सगतिअं' की व्याख्या इस प्रकार है- "सम्यक्-अर्थात् अपने परिणाम से जो गति है, उसे संगति कहते हैं। जिस जीव, को जिस समय, जहाँ, जिस सुख-दुःख का अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है, वही नियति है। उस संगति = नियति से जो सुख-दुःख उत्पन्न होता है, उसे सांगतिक कहते हैं। बौद्ध-ग्रन्थ दीघनिकाय में मक्खिल गोसाल के मत वर्णन में ..."नियतिसंगतिभावपरिणता' शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। सूत्रकृतांग द्वितीय श्रु तस्कन्ध सूत्र 663-65 में भी नियति और संगति दोनों शब्दों का यत्र-तत्र स्पष्ट उल्लेख है। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में नियतिवाद का वर्णन करते हुए कहा गया है-'चूंकि संसार के सभी पदार्थ अपने-अपने नियत स्वरूप से उत्पन्न होते हैं, अतः ज्ञात हो जाता है कि ये सभी पदार्थ नियति से उत्पन्न हैं। यह समस्त चराचर जगत नियति से बँधा हुआ है। जिसे, जिससे, जिस समय, जिस रूप में होना होता है, वह, उससे, उसी समय, उसी रूप में उत्पन्न होता है / इस तरह अबाधित प्रमाण से सिद्ध इस नियति की गति को कौन रोक सकता है ? कौन इसका खण्डन कर सकता है ? साथ ही काल, स्वभाव, कर्म और पुरुषार्थ आदि के विरोध का भी वह युक्तिपूर्वक निराकरण करता है। 3 (क) “मवखलिगोसालो में एतदवोच-नस्थि महाराज, हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं सङ्किलेसाय / अहेतू अपच्चया सत्ता सङ्किलिस्सति / नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया / अहेतू अपच्च्या सत्ता विसुज्झंति / नस्थि अत्त. कारे, नत्थि परकारे, नत्थि पूरिसकारे, नत्यि बलं, नस्थि वीरियं, नत्थि पूरिसथामो, नस्थि पूरिस-परक्कमो / सवे सत्ता, सब्वे पाणा, सब्वे भूता, सम्वे जीवा अवसा अबला, अविरिया नियतिसंगतिभावपरिणता, छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति ।""यानि बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्संत करिस्संति / तत्थ नत्थि इमिनाहं सीलेन व वतेन वा तपेन बा ब्रह्मचरियेन वा अपरिपक्क वा कम्मं परिपाचेस्सामि, परिपक्क वा कम्मं फुस्स फुस्स व्यन्ति करिस्सामीति / हेवं नस्थि दोणमिते सुखदुक्खे परियन्तकते संसारे, नत्थि हायनवड्ढने, नस्थि उक्कंसायकसे / सेय्यथापिनाम सुत्तगुलेखित निब्बेठियमामेव पलेति एवमेव बाले च पण्डिते च संधावित्वा संसरित्वा दुक्खस्तं करिस्संतीति / " -सुत्तपिटके दीघनिकाये (पाली भाग 1) सामञफलसुत्त पृ० 41-53) नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत् / ततो नियतिजा ह्यते, तत्स्वरूपानुबन्धतः / / यद्यदेव यतो यावत् तत्तदेव ततस्तथा। नियतं जायते न्ययात् क एनं बाधयितु क्षम: ? -शास्त्रवार्तासमुच्चय 5 देखिये श्वेताश्वतरो 0 श्लोक 2 में-कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूनानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् / संयोग एषां नत्वात्मभावादात्माण्वनीशः खदुःखहेतोसुः।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org