Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूचकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय (4) शक्तस्य शक्यकरणात्-मनुष्य की शक्ति से जो साध्य-शक्य हो, उसे ही वह करता है, अशक्य को नहीं / यदि असत् की उत्पत्ति हो तो कर्ता को अशक्य पदार्थ भी बना देना चाहिए। (5) कारणभावाच्च सत्कार्यम्- योग्य कारण में स्थित (विद्यमान सत्) पदार्थ की ही उत्पत्ति होती है, अन्यथा पीपल के बीज से आम का अंकुर पैदा हो जाता। निष्कर्ष यह है कि सत्कार्यवाद में उत्पत्ति और विनाश केवल आविर्भाव-तिरोभाव के अर्थ में है। वस्तु का सर्वथा अभाव या विनाश नहीं होता, वह अपने स्वरूप में विद्यमान रहती है। आत्मषष्ठबाद मिथ्या क्यों ? संसार के सभी पदार्थों (आत्मा, लोक आदि) को सर्वथा या एकान्त नित्य मानना यथार्थ नहीं है। सभी पदार्थों को एकान्त नित्य मानने पर आत्मा में कर्तृत्व-परिणाम उत्पन्न नहीं हो सकेगा / कर्तृत्व परिणाम के अभाव में कर्मबन्ध कैसे होगा? कर्मबन्ध नहीं होगा तो सुख-दुःखरूप कर्मफल भोग कैसे होगा? वह कौन करेगा, क्योंकि आत्मा को अकर्ता मानने पर कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव हो जाएगा, ऐसी स्थिति में सुख-दुःख का अनुभव कौन करेगा? __ अगर असत् की कथञ्चित् उत्पत्ति नहीं मानी जाएगी तो पूर्वभव को छोड़कर उत्तरभव में उत्पत्तिरूप जो आत्मा की चार प्रकार की गति और मोक्षरूप पंचमगति बताई जाती है, वह कैसे सम्भव होगी? आत्मा को अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर एवं एक स्वभाव का (कूटस्थनित्य) मानने पर उसका मनुष्य, देव आदि गतियों में गमन-आगमन सम्भव नहीं हो सकेगा और प्रत्यभिज्ञान या स्मृति का अभाव होने से जातिस्मरण आदि भी न हो सकेगा। इसलिए आत्मा को एकान्त नित्य मानना मिथ्या है। सत् की ही उत्पत्ति होती है, ऐसा एकान्तप्ररूपण भी दोषयुक्त है, क्योंकि वह (कार्य) पहले से ही सर्वथा सत् है, तो उसकी उत्पत्ति कैसी ? यदि उत्पत्ति होती है तो सर्वथा सत् कैसे ? घटादि पदार्थ जब तक उत्पन्न नहीं होते, तब तक उनसे जलधारणादि कार्य नहीं हो सकते, अतः घटगुणों से युक्त होकर घटरूप से उत्पन्न होने से पूर्व मृत्पिण्डादि कार्य को घटरूप में असत् समझना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि आत्मा, पंचभूत आदि सभी पदार्थों को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य, तथा किसी अपेक्षा से सत् और किसी अपेक्षा से असत्, इस प्रकार सद्सत्कार्यरूप न मानकर एकान्त मिथ्याग्रह पकड़ना ही आत्मषष्ठवादियों का मिथ्यात्व है। अतः बुद्धिमान् सत्यग्राही व्यक्तियों को प्रत्येक पदार्थ द्रव्यरूप से सत् (नित्य) और पर्याय रूप से असत् (अनित्य) मानना ही योग्य है। 56 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 24-25 (ख) कर्मगुणव्यपदेशाः प्रागुत्पत्तेर्न सन्ति यत्तस्मात् / कार्यमसद्विज्ञ यं क्रिया प्रवृत्तेश्च कतणाम् // " -न्यायसिद्धान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org