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(१८)
ब्रज
मीता (पद०२१५), डगर (पद०२२५),सो (पद०२२५), केइ, कोटन (पद०४५६), राचि (पद०४१४), संभार (पद०४९४), बलाय (पद०४९६) इत्यादि। उर्दू
तलफत (पद०२७), सराय (पद०५८२), गाफिल (पद०५८२) अरबी-फारसी____ सौदा (पद०२७१), मौका (पद०१०१), तसलीम (पद०३५४), उबारो (पद०३५५), साहिब (पद०३४९), अरज (पद०३४९), गोता (पद०५८९) आदि।
इसका प्रमुख कारण है कि उनके रचयिताओं का सम्बन्ध उन-उन क्षेत्रों से रहा है जहाँ-जहाँ उक्त बोलियों का प्राबल्य था। अतः भाषा में वहाँ के प्रभाव का आ जाना स्वाभाविक है।
तयुगीन जैन कवियों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि जिस समय हिन्दी साहित्य में काव्य-रचना केवल ब्रजभाषा में ही हो रही थी, उस समय वे कवि खड़ी बोली में काव्य-रचना कर रहे थे और वह भाषा अपनी शैशवावस्था में न होकर परिष्कृत और परिमार्जित थी।
सभी कवि भाषा के पारखी विद्वान् थे। इसलिए इनकी भाषा-प्रभविष्णु, प्राजंल, प्रसादगुण युक्त, लाक्षणिकता एवं चित्रमयता से परिपूर्ण है। वह प्रभावोत्पादक, मनोरम और भावानुगामिनी है। इनकी भाषा संगीत-सौन्दर्य से समन्वित है। उसकी लोच-लचक और हृदयद्रावकता ने उसकी प्रभावोत्पादकता को दुगुना कर दिया है। उसमें रोचकता और चमत्कृत कर देने की शक्ति विद्यमान है।
उनका वर्ण-विन्यास भी अत्यन्त आकर्षक है। कोमल वर्णों की आवृत्ति से पदों में श्रुति-माधुर्य उत्पन्न हुआ है और उसने संगीत की झंकार को निनादित कर दिया है, ऐसे वर्ण है- “च" "त" "र" "ल'' "व" आदि का एक उदाहरण यहाँ दृष्टटष्य है
"चल सखि देखन नाभिराय घर नाचत हरी नटवा।।" (पद० ४८४) "चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के चरन चतुर चित ध्यावतु है।।" (पद० १०७)
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