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कवि महाचन्द्र
कवि महाचन्द्र ने प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम-काल सन् १८५७ ई० (वि० सं० १९१४) में सुगन्धदशमीव्रत-कथा और वि० सं० १९१५ ( सन् १८५८) में “त्रिलोकसार-पूजा' की रचना की। यह इनकी महत्त्वपूर्ण तथा लोकप्रिय रचना मानी गई है। साथ ही इनके द्वारा लिखित “तत्त्वार्थसूत्र” की हिन्दी-टीका भी उपलब्ध है। इन रचनाओं के अतिरिक्त अन्य ५२ भक्तिपरक, शिक्षापद्र एवं आत्मोपदेशपरक हिन्दी-पद सरल एवं सुबोध भाषा-शैली में लिखित है।। ___ वे सीकर (राजस्थान) के रहने वाले थे एवं श्रावको के क्रिया-काण्डों का सफल सम्पादन भी कराते थे। कवयित्री चम्पादेवी
१९वीं सदी में चम्पादेवी नाम की प्रसिद्ध कवयित्री हुई, जो सम्भवतः प्रथम जैन हिन्दी-कवियित्री हैं। इन्होंने अपने जीवन की सान्ध्य-वेला में साहित्यिक क्षेत्र में प्रवेश करके १०१ पदों का प्रणयन कर हिन्दी-जगतको एक सुन्दर प्राभृत (उपहार) चम्पाशतक के रूप में प्रदान किया हैं। इन पदों की प्रेरणा-स्रोत उनकी गहन अर्हद् भक्ति है, जैसा कि कवियित्री ने अपने पदों में स्वयं ही लिखा है
"मेरी उम्र ६६ वर्ष की है। मुझे असाध्य बीमारी हो गयी है। हाथ-पैर के जोड़ शिथिल हो गए हैं। मैं शरीर की असमर्थता के कारण पृथ्वी पर पड़ी हुई परमात्मा का स्मरण कर रही थी। उन्हीं आर्तस्वर में मैने जिनदेव की विनती की
और उस दुख की घड़ी के समय मेरे मुख से स्वयंमेव निकल पड़ा-पड़ी मझधार मेरी नैया और उसी समय संयोगवश एक पद की रचना हो गई। मैने चिन्तन किया कि मेरे मन में जिनेन्द्रदेव के दर्शन की तीव्र अभिलाषा है, वह कैसे पूरी होगी? उसी समय एक आश्चर्य जनक दृश्य दिखलाई पड़ा कि जिनेन्द्रदेव की श्वेत वर्ण की पद्मासन-प्रतिमा मेरे नेत्रों के समक्ष उपस्थित है और उसी समय से मेरे हाथ और पैरों की सन्धियाँ (जोड़) खुलने लगी और मैं धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगी। तभी से मेरे अन्तर में भक्ति का उद्रेक हुआ और मैं अर्हद्भक्ति में लीन रहने लगी। भक्ति की तन्मयता में जो शब्द निःसृत हुए, उन्होंने ही पदों का रूप धारण कर लिया।"
हिन्दी-जगत में मीरा के पश्चात् यही कवयित्री हुई, जिसके पद भक्ति की तल्लीनता और आध्यात्मिकता के रस से सराबोर हैं।
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