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(२१४)
(५७०)
सवैया दिवि दीपक' लोय बनी बनिता, जड़ जीव पतंग जहाँ परते । दुख पावत प्रान गंवावत' है, वरजे न रहैं हठसौं जरते ॥ इह भांति विचच्छन अच्छन' के वश होय अनीति नहीं करते । परती लखि जे धरनी निरखें, धनि है, धिनि है धनि हैं नर ते ॥
(५७१)
छप्पय प्रथम पांडवा भूप, खेलि . जूआ सब खोयौ । मांस खाय वक राय, पाय विपदा बहु रोयौ ॥ बिन जानै मद पान जोग, जादौगन'° दझै । चारुदत्त दुख सह्यो वेसवा २-विसन अरुज्झै ॥ नृप ब्रह्मदत्त आखेटे१३ सौं द्विज शिवभूति अदत्तरति । पर रमनिराचि" रावन गयौ सातों६ सेवत कौन गति ॥
कवि जिनेश्वरदास
(५७२)
लावनी रंगत लंगड़ी पर नारी से दूर रहो, परनारी नागन कारी है । नरक निशानी धर्म का पंथ विगारन हारी है ॥ टेक ॥ अत्र सुगंध फुलेल लगाकर, अंग दिखावन हारी है। ऊपर चमक दमक अति सुंदर मोह जगावन' हारी है ॥ दीपशिखा सी अधमनर जंतु जराने २ वारी है । संत जिनों से दूर रहैं सो हजार२२ पुरुष की नारी है ॥१॥ ऊपर कोमल वचन सुधासम बोल बोल मन ललचावै उर अंतर२५ में किसी की कभी नहीं खातिर ल्यावै । मूरख मोही सरबथा मन लगा लगाकर बतलावै ।
१.दीपक की लौ २.खोता है ३.मना करने पर ४.जलते है ५.इन्द्रियों के वश ६.परस्त्री देखकर ७.जमीन की तरफ देखते है ८.वक- राजा ९.बहुत रोया १०.यादव कुल ११.जल गये १२.वेश्या व्यसन में उलझे १३.शिकार १४.पर स्त्री १५.लीन होकर १६.सातों व्यसनों के सेवन से क्या हाल होगा १७.काली १८.बिगाड़ने वाली १९.इत्र २०.दिखाने वाली २१.जगाने वाली २२.जलाने वाली २३.हजारों पुरूषों की स्त्री २४.अमृत के समान २५.हृदय २६.विश्वास २७.सर्वथा।
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