Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 263
________________ (२१३) - (५६७) छप्पय चिंता तजै न चोर, रहत चौकायत' सारै । पीटै धनी विलोक, लोक निर्दई मिलि मारै । प्रजापाल करि कोप, तोप सों रोप उडावै । मरै महा दुख पेखि अंत नीची गति पावै । अति विपतिमूल चोरी विसन प्रकट त्रास आवै नजर । परिवत्त अदत्त अंगार गिन नीति निपुन परसै न कर ॥ (५६८) छप्पय कुगति बहन गुन गहन, दहन दावानलसी है । सुजस चन्द्र धन घटा, देह कृशा करन खई है ॥ धन-सर-सोखन धूप, धरम दिन सांझ समानी । विपति भुजंग निवास, बांबई१२ वेद वखानी ॥ इह विधि अनेक औगुन भरी, प्रान हरन-फांसी प्रबल मत करहु मित्र यह जान जिय परवनिता सौ प्रीति पल ॥ (५६९) सवैया कंचन कुंभन की उपमा, कह देत उरोजन को कवि वारे । ऊपर श्याम विलोकत कै मनि नीलम की ढंकनी ढंकि छोरा ॥ यौं सतबैन कहैं न कुपंडित, ये जुग आमिष पिंड उघारे । साधन झार दई मुँह छार, भये इतहि हेत किंधौ कुच कारे । १.सावधान २.मारता है ३.देखकर ४.क्रोध ५.देखकर ६.व्यसन ७.दूसरे का धन ८.बिना दिया ९.छूना १०.क्षय ११.धन रूपी तालाब को सुखाने को १२.कामी १३.प्राणों का हरन करने वाली १४.पर स्त्री। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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