Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 290
________________ ३३४ ५०६ ११८ १८७ १११ ११८ m ३१६ ३३३ m m २७६ m r २३० ४६२ ४६२ १६९ ३०८ २७७ __ ९७ ५७७ २१७ १८९ 3 3 " " ४३५ १५७ ४५० १६४ २३४. जिया तूने लाख तरह समझायो (महा०) २३५. जिया तैं आतम हित नहीं चीना (धान) २३६. जीव तू अनादि ही तैं भूलो (दौल०) २३७. जीव तू भ्रमत भ्रमत भव खोयो (महा०) २३८. जीव तू भ्रमत सदीव (भाग०) २३९. जीव निज-रस राचन (महा०) २४०. जीवनि के परिणामनि की यह अति (भाग०) २४१. जीव! वै मूढ़पना कित्त पायो (द्यान०) २४२. जे दिन तुम विवेक बिन खोये (भाग०) २४३. जे परनारि निहारि निलज्ज (भूध०) २४४. जे सहज होरी को खिलारी (भाग०) २४५. जो आनन्द निज घर में (सुख०) २४६. जोई दिन कटे सोई आव में (भूध०) २४७. जो जग वस्तु समस्त (भूध०) २४८. जो जो देखी वीतराग ने (भैया भाग०) २४९. जो धन लाभ लिलाट लिख्यौ (भूध०) २५०. जौलौ देह तेरी काहू रोग से (भूध०) २५१. ढईसी सराय काय (भूध०) २५२. तजो भवि व्यसन सात सारी (महा०) २५३. तन के मवासी हो अयाना (बुध०) २५४. तन देख्या अथिर घिनावना (बुध०) २५५. तन नहीं छूता कोई चेतन (कुन्दन०) २५६. तहाँ लै चल री ! जहाँ जादौपति (भूध०) २५७. तारौ क्यों न तारो जी (बुध०) २५८. तुम गुनमनि निधि हौ अरहन्त (भाग०) २५९. तुम त्यागो जी अनादि भूल (जिने०) ४१ ४७३ १७४ ४६५ १७० ५३७ ० ५८२ ० ५७८ ० २५८ ० ४४७ m ५५४ 9 ४४ १५ ३४७ १२३ G २३ ३१४ ११० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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