Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 293
________________ १३ ३११. देख्या मैंने नेमि जी प्यारा (द्यान० ) ३१२. देख्यो री कहीं नेमिकुमार (भूध० ) ३१३. देव गुरु साचें मन सीचो (भूध ० ) ३१४. धन कारन पापनि प्रीति करे (भूध० ) ३१५. धन-धन जैनी साधु (भाग ० ) ३१६. धनि चन्द्र प्रभ देव ऐसी सुबुधि उपाई (बुध) ३१७. धनि ते प्रानि जिनके तत्वारथ श्रद्धान (भाग १ ) ३१८. धनि धनि ते मुनि गिरिवन वासी (द्यान० ) ३१९. धनि मुनि आतम हित कीना (दौल० ) ३२०. धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिव ओर (दौल०) ३२१. धनि मुनि जिन यह भाव पिछाना (दौल०) ३२२. धनि सरधानी जग में (बुध ० ) ३२३. धनि ते साधु रहत वन मांहि (द्यान० ) ३२४. धन्य घड़ी याही धन्य घड़ी री ( महा० ) ३२५. धन्य धन्य है घड़ी आज की (भाग ० ) ३२६. धरमी के धर्म सदा मन में (महा० ) ३२७. धर्म एक शरण जिया दूसरो न कोई (बाजू०) ३२८. धर्म बिना कोई नहीं अपना (बुध) ३२९. धिक-धिक! जीवन समकित बिना (द्यान० ) ३३०. ध्यान कृपान प्रति गहि नासो ( दौल) ३३१. नहिं ऐसा जनम बार - बार (द्यान० ) ३३२. नहिं वृथा गमावे सहसा नहिं पावे ( सुख ० ) ३३३. नाथ भए ब्रह्मचारी सखी घर में न रहूँगी (भाग ० ) ३३४. न मानत यह जिय निपट अनारी (दौल०) ३३५. निज कारज काहे न सारे (भाग ० ) ३३६. निजघर नाय पिछान्या रे (महा० ) Jain Education International For Personal & Private Use Only ६३ ३६ २९९ ५६४ १८९ १४ २१६ १९७ २०५ २०३ २०४ २१३ १९६ ४८५ १६० ६०१ ४५७ २६४ २३८ ९१ ४९८ ४९९ २८ ३२४ २७९ २३२ २१ १२ १०५ २१२ ६४ ७४ ६७ ७० ६९ ७० ७३ ६७ १७८ ५४ २२७ १६७ ९२ ८३ ३० १८३ १८३ ९ ११४ ९८ ८० www.jainelibrary.org

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