Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 302
________________ २२ or ४९५ ५१ १८२ १८० १७८ ४९० ४८५ m m 9 m I १६७ ५२३ १९४ ३८३ १३५ १८९ ५४५. सारद! तुम परसाद तै (बुध०) १५२ ५४६. सार नर देह सब कारज को (भूध०) ४९५ ५४७. सारौ दिन निरफल खोय कै (भाग०) ५४८. सिद्धारथ राजा दरबारै (महा०) ५४९. सीख सुगुरु नित्य उरधरौ (महा०) ५५०. सीता सती कहत हे रावण सुन रे (महा०) ५५१. सीमंधर स्वामी मैं चरन का चेरा (भूध०) ५५२. सुख के सब लोग संगाती हैं (मक्खन) ५५३. सुगुरु कृपाकर या समझावैं (जिने०) ५५४. सुणिल्यों जीव सुजान सीख सुगुरु हित की कही १८५ (बुध०) ५५५. सुधि लीज्यो जी म्हारी (दौल०) ५५६. सुन जिन बैन श्रवन सुख पायो (दौल०) ५५७. सुन मन नेमि जी के बैन (द्यान०) ५५८. सुनि अज्ञानी प्राणी श्री गुरु (भूध०) ५५९. सुनिए सुपारस आज हमारी (जिने०) ५६०. सुनियो भविलोको कर्मनि की गति (जिने०) ४६३ ५६१. सुनियो हो प्रभु आदि जिनदा दुख पावत है (बुध०) ७ ५६२. सुनि सुजान ! पाँचो रिपु वश (भूध०) २८९ ५६३. सुफल घड़ी याही देख जिनदेव (महा०) ५६४. सुमति सदा सुखकार मैं चेतन की रानी (कुञ्जी०) ४२६ ५६५. सुमति हित करनी सुखदाय (जिने०) ५६६. सैली जयवंती यह हूजो (द्यान०) ५६७. सो ज्ञाता मेरे मन माना (द्यान०) ५६८. सो मत साँचो है मन मेरे (भूध०) ५८१ ५६९. सौ बरस आयु ताका लेखा करि देखा (भूध०) ५३८ ५८ २८४ ३७३ २१९ २०० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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