Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 266
________________ (२१६) (५७४) रावण कहत लंकापति राजा सुन सीता राणी । काम अग्नि भस्मित हमको तूं दे सरीर पानी ॥ टेर ॥ देख हमारी तीन खंड की लंका राजधानी । भूमि गौचरी अरु विद्याधर रहत बंदिखानी' ॥ रावण ॥१॥ राज हमारो तीन खंड मंदोदरी सी रानी । इन्द्रजीत से पुत्र विभीषण से भाई ज्ञानी ॥रावण ॥२॥ इन्द्र आदि विद्याधर हमने जीते सब जानी । छत्र फिरत इक हमरे ऊपर और नहीं ठानी ॥ रावण ॥ ३ ॥ रंक कहाँ तेरो भर्ता हमसे रामचन्द्र मानी माहदुर्बल वनवासी दीस हमसे रहे छानी ॥ रावण ॥४॥ इत्यादिक मानी नहीं सीता शीलरत्न खानी । 'बुधमहाचन्द्र' कहत रावण की सुधि बुधि विसरानी ॥५॥ (५७५) भवि' तुम छाड़ि परत्रिया भाई निश्चय विचार कारो मन मेरे ॥ टेर ।। जप तप संजम नेम आकड़ी ध्यान धरत मुसानन मेरे । परत्रिय संगत से सब निष्फल ज्यों गज जल डारे तन मेरे ॥ १ ॥ पूज्यपना अरु मानपना फुनि धन्यपनार बड़ापन मेरे । परत्रिय संगत से सब नासे गगन में धनुष पवन थकि तेरे ॥ २ ॥ सिंह बघेरी और सर्पणी इनही की संगत दुख गिन तेरे । इनहू की संगत दुख हैं थोड़े परत्रिय संग लगे धन मेरे ॥ ३ ॥ परत्रिय संगत रावण कीनी सीता हरलायो बन मेरे । तीन खंड को राज गमायो अपजस ले गयो नर्कन मेरे ॥ ४ ॥ ज्यों ज्यों परत्रिया संगति की हैं त्यों त्यों काम बढ़ा अंग मेरे 'बुधमहाचन्द्र' जानिये दूखण परत्रिय संग तजो छिन मेरे ॥ ५ ॥ ज्यान खंड को राज कीनी सीताजय संग लगे न १.कैदी २.भविजन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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