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(२२६) सहज तू अपनो बिगारै', जाय दुर्गति परै ॥ रे जि. ॥ २ ॥ होय संगति गुन सबनि कों सरबरे जग उच्चरै । तुम भले कर भले सबको, बुरे लखि मति जरै ॥रे जि. ॥३॥ वैद्य परविष हर सकत नहिं, आप भीख को भरै । बहु कषाय निगोद-वसा, छिमा ‘द्यानत' तेरे ॥ रे जि. ॥ ४ ॥ द्या.
(५९७) जिय को लोभ महा दुख दाई, जाकी शोभा (?) बरनी न जाई । लोभ करै मूरख संसारी, छांडै पंडित शिव अधिकारी ॥१॥ तजि घरवास फिरै बनमांही, कनक कामिनी छाडै नाही । लोक रिझावत' को व्रत लीना व्रत न होय गई१२ सा कीना ॥२॥ लोभ वशात३ जीव हत" डारै, झूठ बोल चोरी नित धारै । नारि गहै परिग्रह विसतारै, पांच पाप कर नरक सिधारे ॥ ३ ॥ जोगी जती गृही बनवासी, वैरागी दरवैश६ संन्यासी । अजस खान जिसकी नहीं रेखा, धानत' जिनके लोभ विशेष ॥ ४ ॥
कवि भूधरदास (५९८)
राग-ख्याल गरव९ नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गँवार° ॥ टेक ॥ झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे ॥ गर. ॥१॥ कै दिन२२ सांझ सुहागरू जोबन, कै दिन जग में जीजै२३ रे॥ २ ॥ वेगा" चेत विलम्ब तजो नर, बंध बढ़े तिथि२५ छीजै रे ॥ ३ ॥ 'भूधर' पल-पल हो है भारी, ज्यों ज्यों कमरी भीजै रे२६॥ ४ ॥ भू.
१.बिगाड़ता है २.पड़ता है ३.सर्व ४.उच्चारण करता है, बोलता है ५.जलना ६.दूसरे का जहर ७.दूर कर सकना ८.मोक्ष ९.सोना १०.स्त्री ११.दुनिया को खुश करने १२.ठगी सी १३.लोभ के वश होकर १४.मार डालता है १५.चला जाता है १६.भिखारी १७.अयश १८.सीमा १९. घमण्ड २०. मूर्ख २१. देख २२. क्षण २३. जीयेगा २४. घमण्ड २५. दिन २६. समय व्यतीत होता है।
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