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(२२९) कब ध्याय अज अमर को फिर न भव वियन' भमू जिन पूर कौल 'दौल' को यह हेतु ही नमूं ॥ चित. ॥ ४ ॥
कवि नरेन्द्रब्रह्म
. (६०४) जिया ऐसा दिन कब आय है ॥ टेक ॥ सफल विभाव अभाव रूप है चित विकलप मिट जाय है ॥ १॥ परमातम में निज आतम में, भेदाभेद विलाय है। औरों की तो चले कहाँ फिर भेद विज्ञान पलाय' है ॥ २ ॥ आप आपको आपा जानत, यह व्यवहार लजाय है ॥ नय परमान निक्षेप कही ये, इनको औसर जाय है ॥३॥ दरसन ज्ञान भेद आतम के अनुभव मांहि पलाय है । 'नरेन्द्र ब्रह्म' चेतनमय पद में नहि पुद्गल गुण भाय" है ॥ ४ ॥
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१.जंगल में २.प्रमण करूं ३.विकल्प ४.नष्ट हो गया ५.भाग जाता है ६.मौका ७.अच्छा लगता है।
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