Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 277
________________ (२२७) २०. भाव (परिणाम) कवि भागचन्द (५९९) परनति सब जीवन को तीन भांति वरनी' । एक पुण्य एक पाप, एक राग हरनी ॥ पर ॥ टेक ॥ तामैं शुभ अशुभ अंध दोय करै कर्म बंध, वीतराग परनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोगि, पावत नाहीं मनोग, तावत' ही मरन जोग, कही पुण्य करनी ॥२॥ त्याग शुभ क्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप, शुभ में न मगन होय, शुद्धता विसरना ॥३॥ ऊंच-ऊंच दशा धरि चित प्रमाद को विडार, ऊंचली१ दशाते मति, गिरे अधो धरनी१२ ॥४॥ 'भागचन्द' या प्रकार जीव लहै सुख अपार, याके तिरधारि स्याद्वाद की उचरनी ॥५॥ (६००) ऐसे विमल'२ भाव जब पावै, तब हम नरभव सुफल कहावै ॥ टेक ।। दरश बोधभय निज आतम लखि, पर द्रव्यनि को नहिं अपनावै । मोह राग रूष अहित जान तजि, झटित दूर तिनको छिटकावै ॥१॥ कर्म शुभाशुभ बंध उदय में हर्ष विषाद चित नहिं ल्यावै । निज हित हेत विराग ज्ञान लखि, तिनसौं अधिक प्रीति उपजावै ॥ २ ॥ विषय चाह तजि आत्मवीर्य सजि, दुखदायक विधिबंध५ सिरावे'६ । 'भागचन्द' शिवसुख सब सुखमय, आकुलता बिन लखि चित चावै ॥ ३ ॥ बुध महाचन्द्र (६०१) राग-धमाल धरमी के धर्म सदा मन में ॥ धरमी के ॥ टेक ॥ १.रही है २.वीतराग ३.पुण्य ४.पाप ५.शुद्ध ६.संसार से पार उतारने वाली नौका ७.जब तक ८.तब तक ९.भुलाना १०.दूर करके ११.ऊंची १२.नीचे जमीन पर १३.निर्मल १४.विषयों की इच्छा छोड़कर १५.कर्मबंध १६.खिराता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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