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( २२३ )
अरे मन पापन सो
नित
र
यहँते बेगि निकरिये '
गुरु उपदेश विमान बैठके 'नयनानंद' अव्वल पद पावे, भवसागर सों तिरिये '
अरे मन पापन सो
नित so
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॥ २ ॥
1
कवि नैनसुख
(५८९)
क्यों
नहि रे ॥ टेक ॥
मूढ़
मन मानत पर द्रव्यन को डोलत रहता, फिरै गांठ की सम्पत्ति खोता । डूब रसातल मारन गोता, सुख चाहत अर करत कुकर्म ॥ १ ॥ चिर अभ्यास कियो जिन शासन, बैठे मार मार कर आसन । तदपि भयो विज्ञान प्रकाशन, मगन भयो लख तन को चर्म ॥ २ ॥ अरे 'नैनसुख' हियके अन्धे मत कर नाम जतिन के गंदे । अब तो त्याग जगत के धन्धे, कर सुकृत कर जतन धर्म ॥ ३ ॥
कवि नन्दब्रह्म
(५९०)
चले ॥
टेक ॥
मन उलटी चाल पर संगति में भ्रमतो' आयो, पर संगतबन्ध' फूले ॥ रे मन. ॥ हित को छंड अहित सों राचै, मोह पिशाच झले उठ उठ अन्ध सम्हार देख अब, भाव सुधार चले ॥ रे मन. 11 आओ अन्तर आतम के ढिग पर को चपल टले । परमातम को भेद मिलत ही भव को भ्रमण गंले १ ॥ रे मन. ॥ मन को साथ विवेक धरो मित सिद्ध स्वभाव वरे १२ । बिना विवेक यही मन छिन में नरक निवास करे ॥ रे मन. 11 भेद ज्ञान में परमातम पद, आप आप उछरे १३ 1 'नन्द ब्रह्म' पर पद नहिं परसै, ज्ञान स्वभाव छरे ॥ रे मन. ॥
11
॥ ३ ॥
१. निकलिये २.पार होइये ३. निज की सम्पत्ति ४. खोटा कर्म ५. चमड़ा ६. यतियों के ७. पुण्य ८. भटकता ९. दूसरी की संगति में बंधकर १०. समीप ११. गलता है १२. वरण करना १३. उछलना ।
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