Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 271
________________ (२२१) 'द्यानत' अनुभव करि शिव पहुँचे, जिन चिन्ता सब जारी ॥काहे. ॥४॥ (५८४) कहिवे को मन सूरमा'. करवे को काचा ॥ टेक॥ विषय छुड़ावै और पै, आपन अति माचा ॥१॥ मिश्री मिश्री के कहैं, मुंह होय न मीठा । नीम कहैं मुख कटु हुआ कहुँ सुना ना दीठा ॥ २ ॥ कहने वाले बहुत है करने को कोई । कथनी लोक रिझावनी, करनी हित होई ।। ३ ।। कोड़ि जनम कथनी कथै, करनी बिनु दुखिया। कथनी बिन करनी अरै, 'द्यानत' सो सुखिया ॥ ४ ॥ ___ कवि जिनेश्वरदास (५८५) दुर्लभ पायो जिनवर धरम को कर ले अपनो काज ॥ टेक ॥ मानुष भव में मन मेरा आयके, नहि देख्यो निज रूप । तिन जीवन को मन मेरा जीवनो, बिन पानी को कूप ॥ १ ॥ एक कंचन और मन मेरा कामिनी जग जाहिर वट२ मार । इनके बस जग मन मेरा डूबियो, अपनी कीज्यो सम्हार ॥ २ ॥ विषय बासना मन मेरा त्यागके, करले तत्व विचार । जिनवर वच उर मन मेरा धार के जी, जिनको कीज्यो २ विचार ॥ ३ ॥ पांचो इन्द्री मन मेरा बस करो जी, पालो संजम संत । राग द्वेष को मन मेरा परिहरो जी, यही 'जिनेश्वर' पंथ ॥४॥ कवि दौलतराम (५८६) हे मन तेरी को"कुटेव' यह करन विषय में धावै है ॥टेक ॥ इनही के वश तू अनादितै निज स्वरूप न लखावै८ है। पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावै९ है ॥ १ ॥ १. जला दी २. वीर ३. कच्चा ४. आसक्त ५. देखा ६. रिझानेवाली ७. काम ८. देखा ९. आत्म स्वरूप १०. कुआं ११. संसार प्रसिद्ध १२. लुटेरे १३. विचार करो १४. त्यागो १५. कौन सी १६. बुरी आदत १७. इन्द्रिय १८. दिखाई देना १९. चखता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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